Tehzeeb Hafi-Ghazals Part 2
तेरी तरफ़ मेरा ख़याल क्या गया
तेरी तरफ़ मेरा ख़याल क्या गया
के फिर मैं तुझको सोचता चला गया
ये शहर बन रहा था मेरे सामने
ये गीत मेरे सामने लिखा गया
ये वस्ल सारी उम्र पर मुहीत है
ये हिज्र एक रात में समा गया
मुझे किसी की आस थी न प्यास थी
ये फूल मुझको भूल कर दिया गया
बिछड़ के साँस खेंचना मुहाल था
मैं ज़िंदगी से हाथ खेंचता गया
मैं एक रोज दस्त क्या गया के फिर
वो बाग़ मेरे हाथ से चला गया
आँख की खिड़कियाँ खुली होंगी
आँख की खिड़कियाँ खुली होंगी
दिल में जब चोरीयाँ हुई होंगी
या कहीं आइने गिरे होंगे
या कहीं लड़कियाँ हँसी होंगी
या कहीं दिन निकल रहा होगा
या कहीं बस्तियाँ जली होंगी
या कहीं हाथ हथकड़ी में क़ैद
या कहीं चूड़ियाँ पड़ी होंगी
या कहीं ख़ामशी की तक़रीबात
या कहीं घंटियाँ बजी होंगी
लौट आयेंगे शहर से भाई
हाथ में राखियाँ बँधी होंगी
उन दिनों कोई मर गया होगा
जिन दिनों शादियाँ हुई होंगी
ख़्वाबों को आँखों से मिन्हा करती है
ख़्वाबों को आँखों से मिन्हा करती है
नींद हमेशा मुझसे धोखा करती है
उस लड़की से बस अब इतना रिश्ता है
मिल जाए तो बात वगैरा करती है
आवाजों का हब्स अगर बढ़ जाता है
ख़ामोशी मुझ में दरवाज़ा करती है
बारिश मेरे रब की ऐसी नियमत है
रोने में आसानी पैदा करती है
सच पूछो तो हाफ़ी ये तन्हाई भी
जीने का सामान मुहय्या करती है
मैंने जो कुछ भी सोचा हुआ है, मैं वो वक़्त आने पे कर जाऊँगा
मैंने जो कुछ भी सोचा हुआ है, मैं वो वक़्त आने पे कर जाऊँगा
तुम मुझे ज़हर लगते हो और मैं किसी दिन तुम्हें पी के मर जाऊँगा
तू तो बीनाई है मेरी तेरे अलावा मुझे कुछ भी दिखता नहीं
मैंने तुझको अगर तेरे घर पे उतारा तो मैं कैसे घर जाऊँगा
चाहता हूँ तुम्हें और बहुत चाहता हूँ, तुम्हें ख़ुद भी मालूम है
हाँ अगर मुझसे पूछा किसी ने तो मैं सीधा मुँह पर मुकर जाऊँगा
तेरे दिल से तेरे शहर से तेरे घर से तेरी आँख से तेरे दर से
तेरी गलियों से तेरे वतन से निकाला हुआ हूँ किधर जाऊँगा
क्या ग़लतफ़हमी में रह जाने का सदमा कुछ नही
क्या ग़लतफ़हमी में रह जाने का सदमा कुछ नही
वो मुझे समझा तो सकता था कि ऐसा कुछ नही
इश्क़ से बच कर भी बंदा कुछ नही होता मग़र
ये भी सच है इश्क़ में बंदे का बचता कुछ नही
जाने कैसे राज़ सीने में लिए बैठा है वो
ज़ह्र खा लेता है पर मुँह से उगलता कुछ नही
शुक्र है कि उसने मुझसे कह दिया कि कुछ तो है
मैं उससे कहने ही वाला था कि अच्छा कुछ नही
अब मजीद उससे ये रिश्ता नहीं रखा जाता
अब मजीद उससे ये रिश्ता नहीं रखा जाता
जिस से इक शख़्स का परदा नहीं रखा जाता
एक तो बस में नहीं तुझ से मुहब्बत न करू
और फिर हाथ भी हल्का नहीं रखा जाता
पढ़ने जाता हूं तो तस्मे नहीं बांदे जाते
घर पलटता हूं तो बस्ता नहीं रखा जाता
दर-ओ-दीवार पे जंगल का गुमां होता है
मुझ से अब घर में परिंदा नहीं रखा जाता