Tehzeeb Hafi-Ghazals Part 1
ये किस तरह का ताल्लुक है आपका मेरे साथ
ये किस तरह का ताल्लुक है आपका मेरे साथ
मुझे ही छोड़ के जाने का मशवरा मेरे साथ।
यही कहीं हमें रस्तों ने बद्दुआ दी थी
मगर मैं भुल गया और कौन था मेरे साथ।
वो झांकता नहीं खिड़की से दिन निकलता है
तुझे यकीन नहीं आ रहा तो आ मेरे साथ।
अब उस जानिब से इस कसरत से तोहफे आ रहे हैं
अब उस जानिब से इस कसरत से तोहफे आ रहे हैं
के घर में हम नई अलमारियाँ बनवा रहे हैं।
हमे मिलना तो इन आबादियों से दूर मिलना
उससे कहना गए वक्तू में हम दरिया रहे हैं।
तुझे किस किस जगह पर अपने अंदर से निकालें
हम इस तस्वीर में भी तूझसे मिल के आ रहे हैं।
हजारों लोग उसको चाहते होंगे हमें क्या
के हम उस गीत में से अपना हिस्सा गा रहे हैं।
बुरे मौसम की कोई हद नहीं तहजीब हाफी
फिजा आई है और पिंजरों में पर मुरझा रहे हैं।
जहन पर जोर देने से भी याद नहीं आता कि हम क्या देखते थे
जहन पर जोर देने से भी याद नहीं आता कि हम क्या देखते थे
सिर्फ इतना पता है कि हम आम लोगों से बिल्कुल जुदा देखते थे।
तब हमें अपने पुरखों से विरसे में आई हुई बद्दुआ याद आई
जब कभी अपनी आंखों के आगे तुझे शहर जाता हुआ देखते थे।
सच बताएं तो तेरी मोहब्बत ने खुद पर तवज्जो दिलाई हमारी
तू हमें चूमता था तो घर जाकर हम देर तक आईना देखते थे।
सारा दिन रेत के घर बनते हुए और गिरते हुए बीत जाता
शाम होते ही हम दूरबीनों में अपनी छतों से खुदा देखते थे।
उस लड़ाई में दोनों तरफ कुछ सिपाही थे जो नींद में बोलते थे
जंग टलती नहीं थी सिरों से मगर ख्वाब में फ़ाख्ता देखते थे।
दोस्त किसको पता है कि वक़्त उसकी आँखों से फिर किस तरह पेश आया
हम इकट्ठे थे हंसते थे रोते थे एक दूसरे को बड़ा दखते थे।
मल्लाहों का ध्यान बटाकर दरिया चोरी कर लेना है,
मल्लाहों का ध्यान बटाकर दरिया चोरी कर लेना है,
क़तरा क़तरा करके मैंने सारा चोरी कर लेना है।
तुम उसको मजबूर किए रखना बातें करते रहने पर
इतनी देर में मैंने उसका लहज़ा चोरी कर लेना है।
आज तो मैं अपनी तस्वीर को कमरे में ही भूल आया हूँ
लेकिन उसने एक दिन मेरा बटुआ चोरी कर लेना है।
मेरे ख़ाक उड़ाने पर पाबन्दी आयत करने वालों
मैंने कौन सा आपके शहर का रास्ता चोरी कर लेना है।
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी है
कि उस से हम ने तुझे देखने की करनी है
किसी दरख़्त की हिद्दत में दिन गुज़ारना है
किसी चराग़ की छाँव में रात करनी है
वा फूल और किसी शाख़ पर नहीं खिलना
वो ज़ुल्फ़ सिर्फ़ मिरे हाथ से सँवरनी है
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हा जाएँ
समुंदरों से अकेले में बात करनी है
हमारे गाँव का हर फूल मरने वाला है
अब इस गली से वो ख़ुश-बू नहीं गुज़रनी है
तिरे ज़ियाँ पे मैं अपना जियाँ न कर बैठूँ
कि मुझ मुरीद का मुर्शिद औवेस क़र्नी है
बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
बता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करता
हमारे गाँव में बरसात क्यूँ नहीं करता
महाज़-ए-इश्क़ से कब कौन बच के निकला है
तू बव गया है तो ख़ैरात क्यूँ नहीं करता
वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
वा पेड़ मुझ से कोई बात क्यूँ नहीं करता
मैं जिस के साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ
वो मेरे साथ बसर रात क्यूँ नहीं करता
मुझे तू जान से बढ़ कर अज़ीज़ हो गया है
तो मेरे साथ कोई हाथ क्यूँ नहीं करता
सहरा से आने वाली हवाओं में रेत है
सहरा से आने वाली हवाओं में रेत है
हिजरत करूँगा गाँव से गाँव में रेत है
ऐ क़ैस तेरे दश्त को इतनी दुआएँ दीं
कुछ भी नहीं है मेरी दुआओं में रेत है
सहरा से हो के बाग़ में आ हूंँ सैर को
हाथों में फूल हैं मिरे पाँव में रेत है
मुद्दत से मेरी आँख में इक ख़्वास है मुक़ीम
पानी में पेड़ पेड़ की छाँव में रेत है
मुझ सा कोई फ़क़ीर नहीं है कि जिस के पास
कश्कोल रेत का है सदाओं में रेत है
थोडा लिखा, और ज़्यादा छोड़ दीया
थोडा लिखा, और ज़्यादा छोड़ दीया
आने वालो के लिये, रस्ता छोड़ दिया
तुम क्या जानो, उस दरिया पर क्या गुजरी
तमने तो बस पानी भरना छोड़ दिया
लड़कियां इश्क मे कीतनी पागल होती है
फोन बाजा, और चूल्हा जलता छोड़ दिया
रोज एक पत्ता मुझमे आ गिरता है
जबसे मैने जंगल जाना छोड़ दिया
बस कानो पर हाथ रखे थे थोडी देर
और फिर उस आवाज़ ने पीछा छोड़ दिए
बाद में मुझ से ना कहना घर पलटना ठीक है
बाद में मुझ से ना कहना घर पलटना ठीक है
वैसे सुनने में यही आया है रस्ता ठीक है
शाख से पत्ता गिरे, बारिश रुके, बादल छटें
मैं ही तो सब कुछ गलत करता हूँ अच्छा ठीक है
जेहन तक तस्लीम कर लेता है उसकी बर्तरी
आँख तक तस्दीक कर देती है बंदा ठीक है
एक तेरी आवाज़ सुनने के लिए ज़िंदा है हम
तू ही जब ख़ामोश हो जाए तो फिर क्या ठीक है
कदम रखता है जब रास्तों पे यार आहिस्ता आहिस्ता
कदम रखता है जब रास्तों पे यार आहिस्ता आहिस्ता
तो छट जाता है सब गर्द-ओ-गुबार आहिस्ता आहिस्ता
भरी आँखों से होकर दिल में जाना सैन थोड़े ही है
चढ़े दरियाओं को करते हैं पार आहिस्ता आहिस्ता
नज़र आता है तो यूँ देखता जाता हूँ मै उसको
की चल पड़ता है कारोबार आहिस्ता आहिस्ता
तेरा पैकर खुदा ने भी फ़ुर्सत में बनाया था
बनाएगा तेरे जेवर सुनार आहिस्ता आहिस्ता
वो कहता है हमारे पास आओ पर सलीके से
के जैसे आगे बढ़ती है कतार आहिस्ता आहिस्ता
इधर कुछ औरतें दरवाजे पर दौड़ी हुई आयी
उधर घोड़ों से उतरे शहसवार आहिस्ता आहिस्ता
उसके चाहने वालों का आज उसकी गली में धरना है
उसके चाहने वालों का आज उसकी गली में धरना है
यहीं पे रुक जाओ तो ठीक है आगे जाके मरना है
रूह किसी को सौंप आये हो तो ये जिस्म भी ले जाओ
वैसे भी मैंने इस खाली बोतल का क्या करना है
आँख से आँसू दिल से दर्द उमड़ आने पर हैरत क्या
मुझे पता था उसने हर बर्तन का नूतन भरना है
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
कुछ ज़रूरत से कम किया गया है
तेरे जाने का ग़म किया गया है
ता-क़यामत हरे भरे रहेंगे
इन दरख़्तों पे दम किया गया है
इस लिए रौशनी में ठंडक है
कुछ चराग़ों को नम किया गया है
क्या ये कम है कि आख़िरी बोसा
उस जबीं पर रक़म किया गया है
पानियों को भी ख़्वाब आने लगे
अश्क दरिया में ज़म किया गया है
उन की आँखों का तज़्किरा कर के
मेरी आँखों को नम किया गया है
धूल में अट गए हैं सारे ग़ज़ाल
इतनी शिद्दत से रम किया गया है
जब उस की तस्वीर बनाया करता था
जब उस की तस्वीर बनाया करता था
कमरा रंगों से भर जाया करता था
पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था
थक जाता था बादल साया करते करते
और फिर मैं बादल पे साया करता था
बैठा रहता था साहिल पे सारा दिन
दरिया मुझ से जान छुड़ाया करता था
बिंत-ए-सहरा रूठा करती थी मुझ से
मैं सहरा से रेत चुराया करता था
अश्क़ ज़ाया हो रहे थे, देख कर रोता न था
अश्क़ ज़ाया हो रहे थे, देख कर रोता न था
जिस जगह बनता था रोना, मैं वहा रोता न था
सिर्फ तेरी चुप ने मेरे गाल गीले कर दिए
मैं तो वो हूँ, जो किसी की मौत पर रोता न था
मुझ पर कितने एहसान है गुज़रे, पर उन आँखों को क्या
मेरा दुःख ये है, के मेरा हमसफ़र रोता न था
मैंने उसके वस्ल में भी हिज्र कटा है कहीं,
वो मेरे कंधे पे रख लेता था सर, रोता न था
प्यार तो पहले भी उससे था, मगर इतना नहीं
तब में उसको छू तो लेता था, मगर रोता न था
गिरियो ज़ारी को भी एक खास मौसम चाहिए,
मेरी आँखें देख लो, मै वक़्त पर रोता न था
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरजी़ है मुझे
एक साया मिरे तआकुब में
एक आवाज़ ढूँडती है मुझे
मेरी आँखो पे दो मुक़दस हाथ
ये अंधेरा भी रौशनी है मुझे
मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शायरी है मुझे
इन परिंदो से बोलना सीखा
पेड़ से ख़ामुशी मिली है मुझे
मैं उसे कब का भूल-भाल चुका
ज़िंदगी है कि रो रही है मुझे
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है
कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है
अजीब दुख है हम उस के हो कर भी उस को छूने से डर रहे हैं
अजीब दुख है हमारे हिस्से की आग औरों में बट रही है
मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूठ सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मस’अला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है
मुझ ऐसे पेड़ों के सूखने और सब्ज़ होने से क्या किसी को
ये बेल शायद किसी मुसीबत में है जो मुझ से लिपट रही है
ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है
सो इस तअ’ल्लुक़ में जो ग़लत-फ़हमियाँ थीं अब दूर हो रही हैं
रुकी हुई गाड़ियों के चलने का वक़्त है धुंध छट रही है
तेरा चुप रहना मेरे ज़हन में क्या बैठ गया
तेरा चुप रहना मेरे ज़हन में क्या बैठ गया
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया
यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया
इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ
उस ने जिस को भी जाने का कहा, बैठ गया
अपना लड़ना भी मोहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं
चीख़ती तुम रही और मेरा गला बैठ गया
उस की मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने
इस पे क्या लड़ना फुलाँ मेरी जगह बैठ गया
बात दरियाओं की, सूरज की, न तेरी है यहाँ
दो क़दम जो भी मेरे साथ चला बैठ गया
बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस
जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया