हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गिरेबान में है-दर्द आशोब -अहमद फ़राज़-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Ahmed Faraz,
हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गिरेबान में है
क्या ख़बर थी कि बहार उसके भी अरमान में है
एक ज़र्ब और भी ऐ ज़िन्दगी-ए-तेशा-ब-दस्त !
साँस लेने की सकत अब भी मेरी जान में है
मैं तुझे खो के भी ज़िंदा हूँ ये देखा तूने
किस क़दर हौसला हारे हुए इन्सान में है
फ़ासले क़ुर्ब के शोले को हवा देते हैं
मैं तेरे शहर से दूर और तू मेरे ध्यान में है
सरे-दीवार फ़रोज़ाँ है अभी एक चराग़
ऐ नसीमे-सहरी ! कुछ तिरे इम्कान में है
दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे
जैसे अब भी तेरी आवाज़ मिरे कान में है
ख़िल्क़ते-शहर के हर ज़ुल्म के बावस्फ़ ‘फ़राज़’
हाय वो हाथ कि अपने ही गिरेबान में है