हमीं से अपनी नवा हमकलाम होती रही-शामे-श्हरे-यारां -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
हमीं से अपनी नवा हमकलाम होती रही
ये तेग़ अपने लहू में नियाम होती रही
मुकाबिले-सफ़े-आदा जिसे किया आग़ाज़
वो जंग अपने ही दिल में तमाम होती रही
कोई मसीहा न ईफ़ा-ए-अहद को पहुंचा
बहुत तलाश पसे-कत्ले-आम होती रही
ये बरहमन का करम, वो अता-ए-शैख़े-हरम
कभी हयात कभी मय हराम होती रही
जो कुछ भी बन न पड़ा, ‘फ़ैज़’ लुटके यारों से
तो रहज़नों से दुआ-ओ-सलाम होती रही