सूरज के साथ खेलते-गुरभजन गिल-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gurbhajan Gill
सूरज के साथ खेलते धरती जितना जिगरा
आकाश जितना विशाल आगोश
और समुद्र जितना गहरा दिल चाहिए।
यूं ही नहीं बनता यह गगन थाल जैसा।
नहीं बनते सूरज और चंद्रमा,
नन्हे नन्हे दीवे।
तारा मंडल निहारना एक नज़र
और बताना मोतियों का थाल।
सारी कयानात के फूल पात।
जड़ी बूटियाँ
महकती हवाओं को चँवर में बदलना
इतना सहज नहीं होता जनाब।
ख़ुद को ख़ुदी के पाटों के तले से निकालना,
और कुलपालक नहीं लोकपालक बनना।
अपनी मिट्टी स्वयं खोदना, कूटना, गूँधना
और फिर से निर्मित होने के बराबर होता है नित्य नियम।
सूरज के साथ खेलने के लिए
उसका साथी बनना पड़ता है
जोड़ीदार, बाल सखा, यार।
यूं ही नहीं पड़ती आँख में आँख।
हाथों के कक्कन पर पकड़ दृढ़ करनी पड़ती है।
निरंतर निभने के लिए।
ख़ाक होने के लिए हर पल
तैयार बर तैयार रहना पड़ता है।
सिर धर तली गली मोरी आओ का सबक
सिर्फ़ कीर्तनियों के लिए ही नहीं,
ख़ुद की अँतड़ियों से
नाथना पड़ता है यह संदेश।
सूरज का गोला गेंद बना कर
खेलने के लिए
ख़ुद को गैरहाज़िर करना पड़ता है।
छोटे छोटे खेल खेलते
भूल ही गए हैं बड़े खेल।
पूरी धरती को कागज़ बना कर
पूरे समुद्र की स्याही घोल
सारी वनस्पतियों की कलमों से
इबारत लिखने जैसा बहुत कुछ।
बिसर गया है सुखों की अभ्यस्त त्वचा को
असल काम।
गऊ गरीब की रक्षा करते स्वयं नहीं भेड़िया बनना।
न बस्तर के जंगलों में शिकार खेलना है।
वृक्षों की वेदना सुनना है।
तन तपते तवे पर धरते
तेरा किया मीठा लागे की
शिखरीय चोटी पर चढ़ना पड़ता है।
यूं नहीं तपती रेत तपस्या बनती।
सूरज के साथ खेलते तन तंदूर-सा तपाना पड़ता है
हड्डियों के ईंधन से।
यूं ही नहीं नसीब होती लालन की लाली।
शब्द साधना के बाद ही बनते हैं सूर्यवंशी।
सिर्फ़ जन्मजातिए केवल ईंट पत्थर
निरा बचा-खुचा कूड़ा करकट
भ्रम पात्र सँभालते
बिता लेते हैं पूरी अवधि।
धरती पर लकीरें खींचते
वतन वतन खेलते
रक्षक होने के भ्रम में
खुद छिपते फिरते शाहदौले के चूहे।
सत्ताधीश बनते शिक्षाशास्त्री बौने ।
क्या जानें उड़न पखेरुओं की उड़ान
हमें दिन रात सिखाते हैं
रेंगने की तकनीक।
अट्ठारहवीं सदी की ओर
मुँह कराते हैं चाबुकधारी।
अब कुल ब्रह्मांड
अपना अपना लगता है
सबका भला
सिर्फ़ अरदास के समय ही नहीं
दम दम के साथ चलता है
सूरज के साथ खेलते।