सातवीं चिनगारी : उद्बोधन-जौहर- श्यामनारायण पाण्डेय -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Narayan Pandey
नीरव थी रात, धरा पर
विधु सुधा उंडेल रहा था।
नभ के आँगन में हँस हँस
तारों से खेल रहा था॥
शशि की मुस्कान – प्रभा से
गिरि पर उजियाली छायी।
कण चमके रहे हीरों – से,
रजनी थी दूध – नहाई ॥
वह उतर गगन से आया,
सरिता – सरिता सर – सर में ।
चाँदी – सी चमकीं लहरें,
वह झूला लहर – लहर में॥
शीतल प्रकाश छाया था,
उपवन पर, आरामों पर।
शशि – किरणें खेल रही थीं,
मेवाड़ – धवल – धामों पर॥
कुमु्दों के घर रंगरलियां,
पर दुख कमलों के घर क्यों ।
दो आँख जगत पर करता,
यह अन्यायी शशधर क्यों ॥
पत्तों से छन छन किरणें
सोयीं तम के घेरों में।
चू गयी चाँदनी नीचे
क्या तरु – तम के डेरों में ॥
जल – बीच चाँदनी में ये
कितने शोभित हैं बजरे।
वन – बीच किस लिए बनते
ये रंग – बिरंगे गजरे॥
गुथ दिए किसी ने मोती
तम की उलझी अलकों में।
या आँसू के कण अटके,
छाया की मृदु पलकों में ॥
उसके शीतल कर छू छू
हंसती सुमनों की माला ।
अनिमेष चकोर – चकोरी,
पर मलिन पद्मिनी बाला॥
अपलक मयंक की शोभा
यह देख रही थी रानी।
आकुल छवि देख सती की
हमकर था पानी – पानी ॥
दोनों मयंक दोनों की
छवि का कर मोल रहे थे।
विधि – ललित – कला दोनों की
दोनों ही तोल रहे थे॥
केवल इतना अन्तर था,
उसकी छवि तारों में थी।
यह राजमहल के भीतर,
जलते अंगारों में थी॥
उससे पीयूष बरसता,
इससे आँसू का पानी।
वह नभ पर खेल रहा था,
यह भू पर व्याकुल प्राणी॥
निशिदिन घुलती थी रानी,
दुख चिन्ता से आकुल थी।
वह मन की मौन – व्यथा से
अतिशय अधीर व्याकुल थी॥
हा विधना, हा क्यों मैंने
इतनी सुन्दरता पायी !
हा मेरे लिए बनी है,
सुन्दरता ही दुखदायी ॥
सीता सुन्दर थीं, तो थीं
बन्दी रावण के घर में।
पर यहाँ नियम उल्टा है,
पति ही वैरी के कर में॥
उन पर यदि राम – दया थी,
तो क्या वह राम न मेरा।
वह पति को मुक्त करेगा,
वह सबका चतुर चितेरा॥
दमयन्ती भी सुन्दर थी,
सुन्दर थीं ब्रज की राधा।
इस तरह कदापि न आयी
उनके स्तीत्व में बाधा ॥
सावित्री की छवि में क्या
सन्देह किसी को होगा।
पर उसने पति -रक्षा की,
यम ने अपना फल भोगा ॥
कितनी अभागिनी मैं हूं,
मैं कुल की एक बला हूं ?
पति मुझसे मुक्त न होगा ?
क्या सचमुच मैं अबला हूं ?
हे पृथ्वी, तुम फट जाओ,
सीता -सी मैं छिप जाऊँ।
हे अम्बर, टूट गिरो तुम,
मैं दबकर ही मिट जाऊँ॥
क्यों चाँद गगन पर हंसते,
क्यों हंसी बहन की होती।
क्यों शिशु – तारे मुसकाते,
मां विकल तुम्हारी होती॥
जब मेरा पति बन्दी है,
तब मेरे जीने से क्या।
तब हित क्या मधु पीने से,
अनहित विष पीने से क्या ॥
यह सोच बिलपती रानी,
मुख पर दुख दरस रहे थे।
आँखों से सावन के घन
अंचल पर बरस रहे थे॥
इतने में कहा किसी ने,
कानों में छिप रानी के।
धिक, रोती है सीने पर
गौरवमय रजधानी के॥
इस वीर किले पर पहले,
यह कायरता आयी है।
धिक, पहले पहल किले पर
क्षत्राणी मुरझायी है॥
क्या क्या न अनर्थ करेगा,
यह तेरा रोना – धोना।
तेरे रोने से गलता,
तेरा ही रूप सलोना॥
वैरी – दल भग जायेगा,
क्षण तेरे जग जाने से।
जिस तरह तिमिर भग जाता,
दिनराज – प्रभा आने से॥
तू सिंह – सुता क्षत्राणी,
तुझमें काली का बल है।
तू प्रलयानल की ज्वाला,
तू क्यों बनती निर्बल है॥
तू लाल लाल चिनगारी
आँखों में भरकर खोले।
स्वाधीन सिंहनी -सी तू,
स्वच्छन्द गरजकर बोले ॥
फिर देख एक क्षण में ही,
पति मुक्त हुआ जाता है।
यह रावल – विरही गढ़ भी
सुखयुक्त हुआ जाता है॥
यह सुनकर चौंकी रानी,
ध्वनि मौन हुई कह भुन से।
नस – नस में बिजली दौड़ी,
हो गये नयन कुंनरुन से ॥
बन गया वदन ईंगुर – सा,
भौहें कमान – सी लरकीं।
लोहित अधरों में कम्पन,
रानी की आँखें फरकीं॥
उत्साह मिला साहस को,
बल मिला हृदय – भावों को ।
छिप गयी लाज कोने में,
मिल गयी प्रगति पांवों को ॥
तन – रोम – रोम से निकलीं,
पातिव्रत की ज्वालाएँ ।
उससे किसकी उपमा दें,
उपमान कहाँ से लाएँ ॥
कस लिया वक्ष अंचल से,
कटि में कटार खर बाँधी।
करवाल करों में चमकी,
दरबारी चली बन आँधी ॥
चल पड़ी, जिधर करते थे
रण के विचार दरबारी ।
दरबार – चतुर्दिक पहरा
देते सैनिक असिधारी ॥
यह देख दासियाँ धायीं,
मज्जित आँसू के जल में।
वे मना मनाकर हारीं,
वह लौट सकी न महल में ॥
जिसको घर से आँगन में
आने में ही व्रीड़ा थी,
जिसको शिरीष – कुसुमों पर
चलने में ही पीड़ा थी,
प्रतिबिम्ध भूलकर जिसका
अब तक न किसी ने देखा,
अब तक न बनी थी भू पर
जिसके चरणों की रेखा,
बह चली कठोर मही पर,
चरणों के चिह्न बनाती ।
चिह्नों पर द्रुमावली थी
झुक झुककर फूल चढ़ाती ॥
वह पहुँची वहाँ, जहाँ पर
दरबार लगा था रण का।
क्षण झेंपी, अखर गया पर
उसको विलम्ब उस क्षण का ॥
पति के वियोग ने ऐसी
अन्तर में व्यथा उठायी।
रुक सकी न दरवाजे पर,
वह विकल मृगी – सी धायी॥
लजा से घूंघट काढ़े
वह रंगमंच पर आयी।
मानों आश्विन के घन में
बिजली ने ली अंगड़ाई॥
रानी को देख अचानक
उठ झुके सभी दरबारी।
उठ उठ की वीर-सलामी,
जय – जय बोले अधिकारी ॥
उच्छवास सर्पिणी -सी ले,
लेकर कर में खंजर खर।
बोली वाणी वाणी में
दावानल की ज्वाला भर॥
रण के विचार – विनिमय में
वीरो ! इतनी देरी क्यों।
अरि को दहलानेवाली
बजती न समर – भेरी क्यों॥
इस तरह विचार करोगे,
तो किला न रह सकता है।
इस वीर – प्रसविनी माँ का
मुख खिला न रह सकता है॥
ललकार रहा वैरी – दल,
तुम रण – विचार में डूबे।
तलवार शीश पर लटकी,
तुम बाँध रहे मनसूबे ॥
अब समय न है सोने का,
अब समय न रंडरोने का।
अब समय रुधिर – गंगा में
तलवार – धार धोने का॥
स्वर निकल रहा है प्रतिपल,
मेवाड़ – भूमि – कण – कण से।
मर मिटो आन पर अपनी,
अब डरो न हिचको रण से॥
रावल के वंशधरो तुम,
राणा के वंशधरो तुम,
मत कायर बनकर बैठो,
शोणित से भूमि भरो तुम ॥
अपमान बहन का कैसे
तुम जान मौन हो वीरो!
केसरिया – बाना पहने
तुम कहो कौन हो वीरो॥
दिनरात अवज्ञा अरि से
माँ बहनों की होती है।
हूँ पूछ रही, बोलो क्यों
योधा – जमात सोती है॥
गढ़ के पाषाणों में भी
हा, जब कि एक हलचल है !
फिर क्यों न मिनकता कुछ भी
बापा – रावल का दल है॥
क्यों दूध कलंकित करते,
क्षत्राणी के सीने का।
बोलो तो रूप यही है,
क्षत्रिय – जन के जीने का?
धिक्कार तुम्हारे बल को !
धिक्कार रवानी को है!
अरि गरज रहा सीने पर,
धिक्कार जवानी को है!
यदि चाह दिनेश – प्रभा की
जुगुनू के मन में आयी;
यदि आँख सिंहनी पर है,
जम्बुक ने आज गड़ायी;
तो क्या अधिकार, करो पर
तुम भी अब छल – चतुराई।
सीधे से अरि से बोलो,
अन्तर में भर कुटिलाई ॥
कह दो कि सात सौ सखियाँ
उसके संग संग रहती हैं।
उसकी तन -पीड़ा को ले
अपने तन पर सहती हैं ॥
उसके पति को छोड़ें तो
अपनी सहचरियों को ले,
वह शोभित महल करेगी,
ले साथ सात सौ डोले॥
स्वीकार करे यदि अरि तो
संगर की करो तयारी।
बापा के वीरों से हो
सज्जित प्रत्येक सवारी ॥
डोलों में योधा बैठें,
योधा ही करें कहारी।
योधा ही परिचारक हों,
रणधीर वीर असिधारी ॥
इस छल से खिलजी – दल पर
तुम टूट पड़ो रणधीरो।
तुम भग्न सेतु – सरिता – जल –
से फूट पड़ो रणधीरो॥
तुम क्यों हिल – इुल न रहे हो,
बोलो तो क्या कहते हो।
तुम किस विचार – सागर में
डूबे – डूबे बहते हो॥
इन्कार करो यदि तुम, तो
मैं बनूं महाकाली-सी।
उत्साह न हो तो बोलो,
गरजूं खप्परवाली – सी ॥
मैं शेषनाग की करवट –
सी एक बार जग जाऊँ।
मैं आग बनूं वैरी – वन
में दावा – सी लग जाऊँ ॥
वैरी – दल में क्या बल है,
क्षण में शोणित पी जाऊँ।
असि महिपमर्दनी – सी ले
अरि – शीश – शीश पर धाऊँ ॥
आंधी से आज मिला दूँ,
अपनी तूफानी गति को।
मैं मुक्त करूँ क्षण भर में,
कारा से अपने पति को॥
उस काल रमा – काली – सी,
शशि – किरण – कला, ज्वाला – सी ।
वाणी से आग बरसती,
खरतर – रविकर – माला – सी ॥
रानी की बातें सुनकर,
दो बालक आगे आये।
बोले–माँ, तेरी जय हो,
संगर के बादल छाये ॥
यदि हम गोरा बादल, तो
वैरी – दल दलन करेंगे।
वंदी को मुक्त करेंगे,
क्षण भर भी कल न करेंगे ॥
हम क्रुद्ध जिधर जायेंगे,
हम विजय उधर पायेंगे।
हम तुझसे सच कहते माँ,
हम युद्ध – विजय लायेंगे ॥
हम वीर, मगर अन्धों को
माँ, तूने पथ दिखलाया।
हम धीर, मगर तृषितों पर
माँ, तूने मधु बरसाया ॥
माँ, उसी ओर हम होंगे,
तेरा जिस ओर इशारा ।
खिलजी – दल पर लहरेगा,
माँ, पी पी रक्त दुधारा॥
सुनकर ललकार सती की,
सुन सुनकर गोरा – तर्जन ।
चौंके सैनिक दरबारी,
सुन सुनकर बादल – गर्जन ॥
उठ उठ, सामन्तों ने की,
रानी की वीर – सलामी।
बोले–हम तेरे पथ पर,
इम तेरे ही अनुगामी॥
इंगित की ही देरी थी,
कह तो ब्रह्माण्ड हिला दें।
देरी थी उद्बोधन की,
भू से आकाश मिला दें ॥
मारुत ने सुरभि मनोहर,
रानी के तन से पायी।
गा गाकर विहगों ने दी,
रानी को अमर बधाई ॥
सूरज ने महल – झरोखों
से देखा रूप सभा का।
बिखराया वीर – वदन पर
साकार प्रभाव प्रभा का॥
गूँजी शत शत कण्ठों में,
रानी की वीर – कहानी ।
ऊषा ने सखि के तन पर
डाला सोने का पानी॥
खर – रक्त – वदन सूरज ने
पूरब से आँख तरेरी।
छिप गया चाँद पश्चिम में,
भागी निशि उसकी चेरी॥
कुछ सुना, पथिक, कुछ कह देंगे,
जब कभी चाह तेरी होगी।
उस सती पद्मिनी रानी के
अर्चन में अब देरी होगी॥
यह कह चलने के लिए तुरत
ले लिया यती ने मृगछाला।
कातर आँखों में आँसू, भर
गद्गद् बोला सुननेवाला ॥
चल पड़े कहाँ क्षण भर देरी
की व्यथा आज सहनी होगी।
उस जगजननी पतिप्राणा की
पूरी गाथा कहनी होगी॥
आरम्म कथा हो, देर न हो,
खलती पल भर की भी देरी।
लाचार साधु ने कहने को
गोमुखी – लीच माला फेरी ॥
चाव से, उमंग से,
भाव – भरित ढंग से ।
वीर – कहानी. चली,
काव्य – रवानी चली ॥
माधव-विद्यालय,
काशी
सौम्यसितेषु,
१९९७
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