सांध्य-काकली -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 2
नयी ज्योतियाँ पायीं
नयी ज्योतियाँ पायीं,
तभी जाना तुम आयीं।
कुल किरणे मुरझायीं,
तभी जाना तुम आयीं।
नाद – ढके वकवाद सभी के,
छन में रंग सभी के फीके,
हो गये सत्य कहीं के कहीं के,
वीणा में तानें लहरायीं।
खुले द्वार वे और जनो के,
जके – थके रह गये तनों के,
देखे तोल पुराण – धनों के,
राशि – राशि भर आयीं।
गीत – वाद के उमड़े सागर,
बने नयन के नागर-नागर,
वीणा – पुस्तक – जीवन – आगर,
नागरियाँ मुसकायीं।
छुटी चाल पहली चपला की,
चली धीर मति-गति विमला की,
बदले उर के स्पन्दन बाकी,
सरिताएँ सरसायीं।
(रचनाकाल : 21 जनवरी, 1958)
कैसे नये तने, तुम्हारे वन्दनवार बने
कैसे नये तने, तुम्हारे वन्दनवार बने।
पतझ्तर पर कितने, तुम्हारे वन्दनवार बने।
खड़े गणित के चक्र – चक्र पर,
पठित युवक – युवतियाँ मनोहर
देख रहे हैं प्रात – गगन पर
रंग – रंग ललित तने।
कहीं लता-तरु-ग्रुल्म हरित छवि
कही पीत परिपक्व क्षेत्र रवि,
कही नील-नभ अनवकाश कवि
स्तर – स्तर सुघर घने।
वेद – पाठ – रत पण्डरिकागन
जैसे स्तावकजन स्तुति – गायन,
पुष्प – पुष्प पर मधुलिह गुञ्जन,
सन्मन मुखर रने।
(रचनाकाल : 21 जनवरी, 1958)
तेरी पानी भरन जानी है
तेरी पानी भरन जानी है, मानी है।
बेला हारो में लासानी है, सानी है।
जगमग जो यह रानी है, पानी है;
खोयी हुई जैसी वाणी है, यानी है।
मेहराबी लन्तरानी है, तानी है।
लहरों चढ़ी जो धानी है, रानी है।
खूबसूरत ऐसी मानी है, आनी है;
दुनियाँ की दी निशानी है, लानी है।
(सम्भावित रचनाकाल : जनवरी-जुलाई 1958)
ये बालों के बादल छाये
ये बालों के बादल छाये
फिर फिर घिर घिरकर मंडलाये।
बिजली की नयन ज्योति चमकी,
गति पावों की थमकी – थमकी,
स्वर्गीया देवी के शम की
दुर्लभ दर्शन जैसे पाये।
पायल की बूँदों में रुनझुन
क्या भरे घड़े के मिले सगुन,
बोली नूतनता, सुन सुन सुन
नवरसता के तल सरसाये।
(रचनाकाल : 19 जुलाई, 1958)
बरसो मेरे आँगन, बादल
बरसो मेरे आँगन, बादल,
जल-जल से भर दो सर, उत्पल।
करो विकम्पित अवनी का उर
भरो आम्र पल्लव में नव सुर,
रंगो अधर तरुणी के आतुर,
सींचो युवक जनों के हृत्तल।
नयी शक्ति, अनुरक्ति जगा दो,
विकृत भाव से भक्ति भगा दो,
उत्पादन के भाग लगा दो
साहित्यिक – वैज्ञानिक के बल।
लहरें सत्य – धर्म – निष्ठा की
जगें, न कुछ रह जाय व्यथा की,
कलके बोझिल, हल्के; बाकी
रहे ने कुछ जीवन का सम्बल।
(रचनाकाल : 28 जुलाई, 1958)
सुख के सारे साज तुम्हारे
सुख के सारे साज तुम्हारे;
क्षण में अक्षम ही को वारे।
भूमि – गर्भ तरु में रो – रोकर
फिरी गन्ध वन्दी हो – होकर;
दिया कमल को प्रभा-स्नात वर,
बेले को शशि, सुन्दर तारे।
खोले दल के पटल, विश्व जन
आमोदित हो गये स्वस्थ-मन;
जोड़े कर, स्तुति पढ़ी, विनन्दन
किया तुम्हारा, मन से हारे।
(रचनाकाल : 14 अगस्त, 1958)
Comments are closed.