सरोज नवानगरवाली-विंदा करंदीकर -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vinda Karandikar 

सरोज नवानगरवाली-विंदा करंदीकर -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vinda Karandikar

 

मेरे रोज़ के आने-जाने के रस्ते पर
पड़ता था सरोज का घर।
याद है मुझे वह उसका
पुराने घर का
लिपा-पुता कमरा, परदा टँगा;
जिसमें उसके उस जीवन के अनेक वर्ष बीते।

रात में जब गुज़रता मैं उस रस्ते से,
रोज़ दिखाई देता
दृश्य ऐसा
देख जिसे मन ही मन मैं लज्जित हो उठता-
लपेट कर नखरीला आँचल,
समेटती हाथों से मृदुल कुन्तल,
आँज कर नयनों में काजल,
मोहक नखरे दिखलाती,
हल्के से होठ दबाती, और करती हुई इशारे,
खड़ी दीखती वह सदा प्रतीक्षारत!
प्रतीक्षा किसकी?
सारे जग की, जो भी आए बस उसी की;
तब कोई –
छड़ी टिकाता,
बड़ी-सी पगड़ी पहने,
देखता इधर-उधर,
चुपके से घुसता कमरे में खाँसते हुए।
सरोज बढ़ती आगे।
हाथ उसके तब बन्द कर देते द्वार।

फिर भीतर से आती हल्की खनक
सिक्कों की!
सुबह उसी रास्ते से गुज़रते
हुए रोज़ दिखाई देता
अलग ही दृश्य
देख जिसे भर आता हृदय-
उसी द्वार में,
उसी जगह पर,
बैठती सरोज आकर।
ऊँघते ऊँघते बीनती चावल।
काले, कोमल बिखरे कुन्तल
पीठ पर क्रीडा करते,
लटें घुँघराली
खेलती गालों पर।
सामने पड़ी चलनी
थकी आँखें चंचल
बीनती जाती मोटे चावल
साथ ही बहती जाती
नयन जल की धार शीतल।

(अनुवाद : स्मिता दात्ये)