समय की पगडंडियों पर -गीत -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 1

समय की पगडंडियों पर -गीत -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 1

हरसिंगार रखो

मन के द्वारे पर
खुशियों के
हरसिंगार रखो।

जीवन की ऋतुएं बदलेंगी
दिन फिर जायेंगे,
और अचानक आतप वाले
मौसम आयेंगे,

सम्बन्धों की
इस गठरी में
थोड़ा प्यार रखो।

सरल नहीं जीवन का यह पथ
मिलकर काटेंगे,
हम अपना पाथेय और सुख दुख
सब बाँटेंगे,

लौटा देना प्यार
फिर कभी
अभी उधार रखो।

 

करघा व्यर्थ हुआ

करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में
नंगों का बहुमत,
अब चादर की किसे जरूरत,
सिर धुन रहे कबीर,
रूई का
धुनना छोड़ दिया

धुंध भरे दिन,
काली रातें,
पहले जैसी
रहीं न बातें,
लोग काँच पर मोहित
मोती
चुनना छोड़ दिया

तन मन थका
गाँव घर जाकर,
किसे सुनायें
ढाई आखर,
लोग बुत हुए
सच्ची बातें
सुनना छोड़ दिया

 

अर्थ वृक्ष

अर्थ वृक्ष की
अभिलाषा में
हम बोते विष-बीज।
गोबर, गाय,
प्रकृति की पूजा
हमने सब बिसराये,
यंत्र, रसायन,
कृमिहर पाकर
मन ही मन बौराये,
चाँदी के
टुकड़ों के आगे
यह जीवन क्या चीज़।
कपट भरे संवाद
कर रहीं
ये विष भरी हवायें,
रोगों की
सौगात बाँटती
हर दिन छद्म दवायें,
अपने पैर
कुल्हाड़ी अपनी
रहे स्वयं ही छीज।
गुमसुम और उदास
हो गये
संध्या और सवेरे,
कदम कदम पर
साथ निभाते हैं
घनघोर अंधेरे,
चौखट पर
हम दीप जलायें
इतनी नहीं तमीज।

 

मन का उपवन

तुम आये तो
मन का उपवन
महक गया।
उड़ने लगीं
तितलियाँ सुख की,
खिले कमल,
पाकर तुम्हें
थिरकता रहता
मन चंचल,
प्रेम-गंध पा
मुग्ध भ्रमर – मन
बहक गया।
कुछ खुशबू
कुछ रंग प्यार के,
गये बरस,
सारा जीवन
मधुमय होकर
हुआ सरस,
सुर्ख गुलाब
खिला चेहरे पर
दहक गया।

 

प्रिये, तुम्हारा ऋणी रहँगा

युगों-युगों तक मैं तन-मन से प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।

प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।
तुम जीवन-सरिता सी कल-कल,
सरसाती मेरा मन पल-पल,
बिना तुम्हारे कितना बेकल ?
साथ तुम्हारी ही लहरों के, जीवन भर उन्मुक्त बहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।

मिलते पथ-वन-शिला-गुफ़ायें,
जगतीं मन में नव-आशायें,
दृश्य भले मन को ललचायें,
बँधा तुम्हारी प्रेम-डोर से, जित जाओगी, राह गहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।

माना, हो जाती है खट-पट,
किन्तु सुलह भी होती झटपट,
फिर आगे बढ़ते पग खट-खट,
इसे प्यार के लिये ज़रूरी, एक नया आयाम कहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।

जीवन की बगिया में हिल-मिल,
महकेंगे हम साथ-साथ खिल,
दूर कहाँ कोई भी मंज़िल ?
कहाँ नियत कुछ भी जीवन में ? सुख-दुख मिल कर साथ सहूँगा।
प्रिये ! तुम्हारा ऋणी रहूँगा।

 

बिटिया

बिटिया
जरा संभल कर जाना,
लोग छिपाये रहते खंजर।
गाँव, नगर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते,
कहीं कहीं
तेज़ाब बरसता,
नाग कहीं पर पलते,
शेष नहीं अब
गंध प्रेम की,
भावों की माटी है बंजर।
युवा वृक्ष
काँटे वाले हैं
करते हैं मनभाया,
ठूंठ हो गए
विटप पुराने
मिले न शीतल छाया,
बैरिन धूप
जलाती सपने,
कब सोचा था ऐसा मंजर।
तोड़ चुकीं दम
कई दामिनी
भरी भीड़ के आगे,
मुन्नी, गुड़िया
हुईं लापता,
परिजन हुए अभागे,
हारी पुलिस ,
न वो मिल पायीं,
मिले न अब तक उनके पंजर।

 

सम्भावना

आइये,
सम्भावना का घर बनायें।
विखण्डित होते घड़ों को
कौन सा पनघट भरेगा,
नाव में सौ छेद हों
असहाय नाविक क्या करेगा,
बेसुरे गीतों को
कब तक गुनगुनायें ?
साँप जाने पर
लकीरें पीट कर भी क्या मिला,
अँधता समझी न अब तक
आँसुओं का सिलसिला,
अर्थ खोती रस्म को
तीली दिखायें।
ठूंठ होती जिन्दगी से
फिर नये अंकुर उठेंगे,
भोर होगी, नीड़ से
नवचेतना के सुर उठेंगे।
नयी आशाओं के कोमल पर उगायें।

 

प्रिये ! मैं गाता रहूँगा

यदि इशारे हों तुम्हारे, प्रिये ! मैं गाता रहूँगा।

प्रेम-पथ का पथिक हूँ मैं,
प्रेम हो साकार तुम,
मुझ अकिंचन को हमेशा,
बाँटती हो प्यार तुम,
पात्र लेकर रिक्त, द्वारे नित्य ही आता रहूँगा।

सरस है जीवन तुम्हीं से,
हर दिवस मधुमास है,
रात का हर पल, तुम्हारे-
प्रेम का ही रास है,
वेणु का हर सुर मधुरतम तुम्हीं से पाता रहूँगा।

खिलेंगे जब, तक तुम्हारे-
युगल नयनों में कमल,
तभी तक सुखमय रहेंगे,
जिन्दगी के चार पल,
मैं मधुप हर पंखुडी पर बैठ मुस्काता रहूँगा।

प्रेम से जीवन मेरा
तुमने संवारा जिस तरह,
मैं तुम्हें प्रतिदान इसका
दे सकूँगा किस तरह
नित्य बलिहारी तुम्हारे प्रेम पर जाता रहूँगा।

 

कड़ियाँ फिर से जोड़ें

आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलो वर्जनाओं को तोड़ें ।
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बँटे हुए हैं,
व्यर्थ फँसे हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं,
आओ,
बिखरे संवादों की
कड़ियाँ-कड़ियाँ फिर से जोड़ें ।
ठकुर सुहाती
करते-करते
अब तो कितने ही युग बीते,
शून्य मिली
उपलब्धि हमारी
सब अनुभव रीते के रीते,
हम यथार्थ से
जुड़े-जुड़े ही
आडंबर के कान मरोड़ें ।

 

मिट्टी के दीप

गुमसुम से बैठ गये
मिट्टी के दीप,
दीप – पर्व
बिजली से सांठ – गाँठ कर रहे।
सम्पत को याद आये
चाक वाले दिन,
दौड़ ये विकास की
चुभो रही है पिन,
वन्ध्या सी हो गयीं
ये मन की सीपियाँ,
स्वाति बूंद स्वप्न हुई
दर्द ही उभर रहे।
सहसा चौंका दिया
अभावों ने आके,
रात दिन बीत रहे
कर कर के फाके,
हर घड़ी डराते है
भूख के पटाखे,

कहने को ज़िंदा हैं,
किन्तु नित्य मर रहे।
गूंगा परिवेश हुआ
गाँव हुआ बहरा,
संस्कृति के द्वार पर
धनिकों का पहरा,
वणिकों के संधि-पत्र
श्रमिक के अँगूठे,
जीवन की नदिया में
प्यास लिये डर रहे।

 

सुनो ! कबीर

सुनो, कबीर
बचाकर रखना
अपनी पोथी।
सरल नहीं,
गंगा के तट पर
बातें कहना,
घड़ियालों ने
मानव बनकर
सीखा रहना,
हित की बात
जहर सी लगती,
लगती थोथी।
बाहर कुछ,
अन्दर से कुछ हैं
दुनिया वाले,
उजले लोग,
मखमली कपड़े,
दिल हैं काले,
सब ने रखी
ताक पर जाकर
गरिमा जो थी।

 

कागजी घोड़े

थके कागजी घोड़े
लेकिन कलुआ नहीं मिला।

सुरा
पान, पकवान
सभी से की खातिरदारी,
आते जाते
रकम भेंट की
पकड़ायी भारी,
फिर भी रही शिकायत
थोड़ा हलुआ नहीं मिला।

अनसुलगे
चूल्हों की बस्ती
भूखे लोग मिले
मानचित्र पर, किन्तु
हवा के
निर्मित हुए किले
दर्ज हुए अभिलेख
गाँव में ठलुआ नहीं मिला।

हुआ सयाने लोगों द्वारा
अनुसंधान हुआ,
सभा
और नारेबाजी में
उलझ गया नथुआ,
पेट पीठ में मिला
भीड़ में तलुआ नहीं मिला।

 

गाँव तरसते हैं

सुविधाओं के लिए अभी भी गाँव तरसते हैं।

सब कहते इस लोकतन्त्र में
शासन तेरा है,
फिर भी ‘होरी’ की कुटिया में
घना अंधेरा है,
अभी उजाले महाजनों के घर में बसते हैं।

अभी व्यवस्था
दुःशासन को पाले पोसे है,
अभी द्रौपदी की लज्जा
भगवान-भरोसे है,
अपमानों के दंश अभी सीता को डसते हैं।

फसल मुनाफाखोर खा गये
केवल कर्ज बचा,
श्रम में घुलती गयी जिन्दगी
बढ़ता मर्ज बचा,
कृषक सूद के इन्द्रजाल में अब भी फँसते हैं।

रोजी-रोटी की खातिर
वह अब तक आकुल है,
युवा बहिन का मन
घर की हालत से व्याकुल है,
वृद्ध पिता-माता के रह-रह नेत्र बरसते हैं।

 

कल्पना की पतंगें काफी उड़ चुकीं, मीत ।

 

कल्पना की पतंगें काफी उड़ चुकीं, मीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।

है अगर अवरुद्ध पथ, तो दूसरे पथ पर मुड़ो,
बोल दो, मन विहग से तुम बेझिझक होकर उड़ो,
और उड़ते ही रहो, जब तक न मिलती जीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।

जगत में पुरुषार्थ रूपी पुष्प श्रम से ही खिला है,
कहो, जग में, ठहर कर किस नदी को सागर मिला है,
सीख देता यह नदी का थिरकता संगीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।

बहुत सी सापेक्ष गतियां, बहुत कम हैं, यह सही है
पर, वृहद ब्रह्माण्ड में स्थिर कहीं कुछ भी नहीं है,
हर दिशा गाती रही है, सिर्फ गति के गीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ॥

विजय करती धीरता और वीरता का ही वरण,
मंजिलें उनको मिली, पथ में बढ़े जिनके चरण,
कर्मवीरों ने चखा है, प्राप्ति का नवनीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।

विजय का उद्घोष करके तुम विजय पथ पर बढ़ो,
सफलता के शिखर पर निर्द्वन्द होकर तुम चढ़ो,
कभी विचलित कर न पायें घाम, वर्षा, शीत ।
किसलिए अब भी खड़े हो, तुम वहीं भयभीत ।।

 

खुशियों के गंधर्व

खुशियों के गंधर्व
द्वार द्वार नाचे।

प्राची से
झाँक उठे
किरणों के दल,
नीड़ों में
चहक उठे
आशा के पल,
मन ने उड़ान भरी
स्वप्न हुए साँचे।

फूल
और कलियों से
करके अनुबंध,
शीतल बयार
झूम
बाँट रही गंध,
पगलाए भ्रमरों ने
प्रेम-ग्रंथ बाँचे।

 

प्रेम पाती

जीवन में रस छलकाती है, प्रिये ! प्रेम-पाती ।
तुम मिलतीं तो जैसे सुख की बारिश आ जाती ।।

प्रिये ! मिलन की शुभ वेला में कण-कण मुस्काता,
चार हुईं आँखों से बरबस नेह बरस जाता,
मन-आँगन का हर कोना आलोकित हो जाता,
स्वयं दीप बन जाता मैं, यदि बनतीं तुम बाती ।

मधु साने से शब्द तुम्हारे, जीवन-अर्थ बने,
प्रेम-पाश की जंजीरों में और समर्थ बने,
आशाओं की डोर, रोज़ बल प्राणों को देती,
सम्बल बन कर रहती तेरी यादों की थाती ।

जिसने आकर कानों में मधु-वेणु बजाई है,
वह मदमाती पवन तुम्हीं से मिलकर आई है,
मन की वीणा के तारों को झंकृत सा करती,
नई रागिनी छेड़ रही है, मन में इठलाती ।

भाव-अभावों की भी अपनी ही मजबूरी है,
कोई भी क्या करे, हाय ! विधि-निर्मित दूरी है,
रोम-रोम हर्षित हो जाता, सपने जी जाते,
जब तेरी आँखों की भाषा गीत नये गाती ।
तुम मिलतीं तो जैसे सुख की बारिश आ जाती।

 

सुख के फूल खिलाने आया

जो तन मन से टूट चुके हैं, उनको पुनः जिलाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया।

मुझको नहीं शिकायत जग से, जितना मिला सुखी हूँ पाकर,
आ जाते हैं अगर कभी ग़म, करता बिदा उन्हें मैं गाकर,
सबको खुशियाँ बाँट रहा हूँ, उद्बोधन के गीत सुनाकर,
जिनके कण्ठ प्यास से आकुल, उनको अमी पिलाने आया।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया ।।

नहीं हाथ पर हाथ धरे मैं, श्रम से रहा पुराना नाता,
अवचेतन में संचित है यह, जो श्रम करता वह फल पाता,
बिन पुरुषार्थ भाग्य भी जग में, कहाँ, कभी कुछ देकर जाता,
टूटे नींद, जगें सब फिर से, मैं ऐसा कुछ गाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया।।

सीमित नहीं स्वार्थ अपने तक, पर-पीड़ा का भान मुझे हैं,
जो ग़म के सागर में डूबे, उनकी भी पहचान मुझे है,
जीयें सभी उल्लसित जीवन, ऐसी, चाह महान मुझे है,
यह सारा जग सबका ही गृह, सबको यही सिखाने आया।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया ।।

सभी जानते शक्ति मिलन की, एक-एक ग्यारह हो जाते,
अगर संगठन हो आपस में, कभी न कोई झंझट आते,
जीवन का यह सफर सुहाना, कट जाता है हँसते-गाते,
सीखें सभी मिलन की भाषा, सबको यहाँ मिलाने आया।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया ।।

जीवन का इतना ही क्रम है, पहले खिलता, फिर मुरझाता,
यह संसार सराय सरीखा, कौन हमेशा ही रह पाता ?
नश्वर देह भले मिट जाये, रहता अमर-प्रेम का नाता,
इस जीवन का सार प्रेम ही, इतना याद दिलाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में, सुख के फूल खिलाने आया।

जो तन मन से टूट चुके हैं, उनको पुनः जिलाने आया ।
मैं सब के मन की बगिया में सुख के फूल खिलाने आया ।

 

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