शाश्वत-काव्यगंधा -कुण्डलिया संग्रह -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 2

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शाश्वत-काव्यगंधा -कुण्डलिया संग्रह -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 2

शाश्वत

मरना है जब एक दिन, फिर भय है किस हेतु।
जन्म मरण के बीच में, सांसों का यह सेतु।।
सांसों का यह सेतु, टूट जिस दिन भी जाता।
निराकर यह जीव, दूसरा ही पथ पाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, मृत्यु से कैसा डरना।
देता जीवन दिव्य, परम हितकारी मरना।।

***

बलशाली के हाथ में, बल पाते हैं अस्त्र।
कायर के संग साथ में, अर्थहीन सब शस्त्र।।
अर्थहीन सब शस्त्र, तीर, तलवार, कटारी।
बरछी, भाला, तोप, गदा, बन्दूक, दुधारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, बाग का बल ज्यों माली।
हथियारों का मान, बढ़ाता है बलशाली।।

***

माटी अपने देश की, पुलकित करती गात।
मन में खिलते सहज ही, खुशियों के जलजात।।
खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी।
हों निहारकर धन्य, करें सब कुछ बलिहारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी।
लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।।

***

आया कभी न लौटकर, समय गया जो बीत।
फिर से दूध न बन सका, मटकी का नवनीत।।
मटकी का नवनीत, जतन कर कोई हारे।
फिर से चढ़े न शीर्ष, कभी नदिया के धारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी ने यह समझाया।
समय बड़ा अनमोल, लौटकर कभी न आया।।

***

अब तक हुआ न वहम का, कोई भी उपचार।
कितने पंडित, मौलवी, ज्ञानी बैठे हार।।
ज्ञानी बैठे हार, यत्न कुछ काम न आये।
करता बड़ा अनर्थ, वहम जिसको हो जाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, जियोगे भ्रम में कब तक।
हुए बहुत उत्पात, वहम के कारण अब तक।।

***

विषधर चंगुल से गया, पीटी खूब लकीर।
किस मतलब का है सखे, चूक गया जो तीर।।
चूक गया जो तीर, लक्ष्य को भेद न पाया।
सूख गये जब खेत, गरजता सावन आया।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी शुभ लगे समय पर।
आता ऐसा काल, पूज्य हो जाता विषधर।।

***

जाने पर माने नहीं, माने करे न कर्म।
ले जाये गंतव्य तक, उसे कौन सा धर्म।।
उसे कौन सा धर्म, सफलता-पथ दिखलाये।
जिसको कर्म-महत्त्व, समझ में कभी न आये।
‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति अपनी ताने।
फल बनते बस कर्म, कोई कितना भी जाने।।

***

सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ा, लिया शिखर को चूम।
शून्य रहीं उपलब्धियाँ, उसी बिन्दु पर घूम।।
उसी बिन्दु पर घूम, हाथ कुछ लगा न अब तक।
बहकाओगे मित्र, स्वयं के मन को कब तक।
‘ठकुरेला’ कविराय, याद रखती हैं पीढ़ी।
या तो छू लें शीर्ष, या कि बन जायें सीढ़ी।।

***

जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान।।
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूंढ़े मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन।।

***

गीता, वेद, पुराण सब सिखलाते यह बात।
जनक सभी का एक है, मिलकर रहिये, तात।।
मिलकर रहिये, तात, नेह की झड़ी लगाओ।
सारे झगड़े छोड़, गले मिल मिल सुख पाओ।
‘ठकुरेला’ कविराय, प्रेम ने किसे न जीता।
सभी सिखाते मेल, वेद, रामायण, गीता।।

***

तेरे मन की उपज है, भेदभाव का रोग।
सांई के दरबार में, हैं समान सब लोग।।
हैं समान सब लोग, न कोई ऊँचा-नीचा।
सबका मालिक एक, सभी को उसने सींचा।
‘ठकुरेला’ कविराय, समझ यह आई मेरे।
ये आपस के भेद, उपज हैं मन की तेरे।।

***

सीता हो राधिका, या फिर कोई और।
कभी न रहता एक सा, सदा समय का दौर।।
सदा समय का दौर, राम वन मांहि सिधारे।
आये आपदकाल, फिरें सब मारे मारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता मनचीता।
समय बहुत बलवान, राम हों या फिर सीता।।

***

होनी के ही खेल हैं, सुख आये या पीर।
यश, अपयश, यौवन-जरा, रूप, कुरूप शरीर।।
रूप, कुरूप शरीर, मीत, पितु, माता, भाई।
होनी के अनुसार, सकल धन दौलत पाई।
‘ठकुरेला’ कविराय, किसलिए सूरत रोनी।
जीवन के सब खेल, कराती रहती होनी।।

***

नारी की पूजा जहाँ, वहीं देव का वास।
जीवन दायी शक्ति है, नारी के ही पास।।
नारी के ही पास, प्रेरणा, प्रेम, करुण-रस।
क्षमा, शील, हित, धर्म, विनय, ममता, सुख ये दस।
‘ठकुरेला’ कविराय, सहज निधि आयें सारी।
मंगल हो हर भाँति, जहाँ हो पूजित नारी।।

***

नींद न आये रात भर, जो भी सहे वियोग।
बहुत बुरा इस जगत में, यार, प्रेम का रोग।।
यार, प्रेम का रोग, जिस किसी को लग जाता।
मिटे भूख और प्यास, न मन को कुछ भी भाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, रोग यह जिसे सताये।
रहे खूब बेचैन, रात दिन नींद न आये।।

***

अनुशासन पतवार है, जीवन तेज बहाव।
मंजिल तक ले जायेगी, तुम्हें समय की नाव।।
तुम्हें समय की नाव, नियम से नाता जोड़ो।
हों बाधायें खूब, न तुम अनुशासन तोड़ो।
‘ठकुरेला’ कविराय, सँवरता सजता जीवन।
उसे सफलता मिली, जिसे भाया अनुशासन।।

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फिर से लौटेगा नहीं, गया समय श्रीमान।
जिसे गंवाया आपने, मामूली सा जान।।
मामूली सा जान, नहीं कीमत पहचानी।
यही ज़रा सी चूक, याद दिलवाये नानी।
‘ठकुरेला’ कविराय, निकलिये महातिमिर से।
गया हाथ से वक़्त, नहीं आता है फिर से।।

***

मानो या मत मानिये, पर इतना है साँच।
नहीं आ सकी जगत में, कभी साँच पर आँच।।
कभी साँच पर आँच, जानता सकल जमाना।
चलो सत्य की राह, भले हों दुविधा नाना।
‘ठकुरेला’ कविराय, साथियो, इतना जानो।
सदा जीतता सत्य, मानिये या मत मानो।।

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रोता रहता आदमी, बनकर धन का दास।
यही चाहता हर समय, और अधिक हो पास।।
और अधिक हो पास, भले भंडार भरे हों।
मोती, माणिक हार, विपुल धन धान्य धरे हों।
‘ठकुरेला’ कविराय, कभी संतुष्ट न होता।
कितना भी धन मिले, आदमी फिर भी रोता।।

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मीठी बोली बोलकर, कोयल पाये मान ।
काँव काँव कागा करे, कोसे सकल जहान ।।
कोसे सकल जहान, कटु बचन किसको भाते ।
मृदुभाषी के पास, सभी सुख दौडे़ आते ।
‘ठकुरेला’ कविराय, सहज बनते हमजोली ।
बन जाते सब काम, बहुत शुभ मीठी बोली ।।

***

रोता हो रणभूमि में, निंदनीय वह वीर ।
नहीं स्वास्थ्य हित में भला, यदि ठहरा हो नीर ।।
यदि ठहरा हो नीर, रूपसी बाहर सोये ।
सूखें हों जब खेत, कृषक बीजों को बोये ।
‘ठकुरेला’ कविराय, संत कुनबे को ढोता ।
ले समर्थ से बैर, अज्ञ जीवन भर रोता ।।

***

दानी होना ठीक है, पर इतना लो जान।
देना सदा सुपात्र को, यदि देना हो दान।।
यदि देना हो दान, रहे याचक अविकारी।
पाकर दान न बनें, निठल्ले और भिखारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, मिले प्यासे को पानी।
कर ले सोच विचार, दान दे जब भी दानी।।

***

समझाता हर विज्ञ ही, मानवता का मर्म ।
एक सूत्र में बांधता, दुनिया का हर धर्म ।।
दुनिया का हर धर्म, मिटाता कौमी दंगा ।
सब के लिये समान, बहाता सुख की गंगा ।
‘ठकुरेला’ कविराय, भेद कुछ समझ न आता ।
सबका मालिक एक, धर्म इतना समझाता ।।

***

मन में खिलें प्रसून जब, आ जाता मधुमास ।
सुख की मोहक तितलियाँ, उड़ने लगती पास ।।
उड़ने लगती पास, महक जीवन में छाती ।
घिर आते सुख-मेघ, देह कुंदन बन जाती ।
‘ठकुरेला’ कविराय, रंग भरते जीवन में ।
आती नई बहार, हर्ष जब छाये मन में ।।

***

घड़ियाली आँसू नहीं, रखते कभी महत्व ।
अर्थवान है, बस वही, जिसमें हो कुछ तत्व ।।
जिसमें हो कुछ तत्व, अर्थ हो, भाव भरे हों ।
हो निश्छल संवाद, स्वार्थ की बात परे हों ।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ हैं बातें खाली ।
बुनते हैं भ्रम-जाल, मित्र, आँसू घड़ियाली ।।

***

ममता की मंदाकिनी, बहती माँ के पास ।
होता माँ के साथ में, सुख का ही अहसास ।
सुख का ही अहसास, विघ्न छू-मंतर होते ।
माँ के मीठे बोल, बीज सुख के ही बोते ।
‘ठकुरेला’ कविराय, किसी से हुई न समता ।
जग में रही अमूल्य, सदा ही माँ की ममता ।।

***

सोना कीचड़ में पड़ा, नहीं छोड़ता बुद्ध।
गुण ग्राहक करता नहीं, अपना पथ अवरुद्ध।।
अपना पथ अवरुद्ध, जहाँ कुछ उत्तम पाता।
विद्या, कला, विचार, सहज संग में ले आता।
‘ठकुरेला’ कविराय, मूल्य कम कभी न होना।
भले बुरे हों ठौर, किन्तु सोना है सोना।।

***

नारी का सौन्दर्य है, उसका सबल चरित्र ।
आभूषण का अर्थ क्या, अर्थहीन है इ़त्र ।
अर्थहीन है इत्र, चन्द्रमा भी शरमाता ।
मुखमण्डल पर तेज, सूर्य सा शोभा पाता ।
‘ठकुरेला’ कविराय, पूछती दुनिया सारी ।
पाती मान सदैव, गुणों से पूरित नारी ।।

***

दुनिया में हर व्यक्ति का, अपना अपना ढंग ।
कोई खुशियाँ बाँटता, कोई करता तंग ।।
कोई करता तंग, साथ जब जब भी चलता ।
बुनता रहता जाल, देखकर मौका छलता ।
‘ठकुरेला’ कविराय, सँभलकर चलता गुनिया ।
सबको रूप अनेक, दिखाती रहती दुनिया ।।

***

अपना लगता है जगत, यदि हो हमें लगाव।
प्रति उत्तर में जग हमें, देने लगता भाव।
देने लगता भाव, और मिट जाती दुविधा।
स्वागत को तैयार, मिले पग पग पर सुविधा।
‘ठकुरेला’ कविराय, फलित हो सुख का सपना।
सभी करेंगे प्यार, बनाकर देखो अपना।।

***

जीवन भर परहित करे, दिन हो या हो रात।
उसके जीवन में रहे, सुख की ही बरसात।
सुख की ही बरसात, कमी कुछ उसे न होती।
करते सब आतिथ्य, प्यार के मिलते मोती।
‘ठकुरेला’ कविराय, प्रफुल्लित रहता है मन।
मिट जाते सब द्वन्द, सफल हो जाता जीवन।।

***

जीवन है बोझिल वहाँ, जहाँ न सच्चा प्यार।
ज़्यादा दिन टिकता नहीं, बनावटी व्यवहार।
बनावटी व्यवहार, सहज मालुम हो जाता।
छल प्रपंच से व्यक्ति, दीर्ध सम्बन्ध न पाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, रिक्त ही रहा कुटिल मन।
जहाँ दिलों में प्यार, महकता गाता जीवन।।

***

अपनाये जब आदमी, जीवन में छल छंद।
हो जाते हैं एक दिन, सब दरवाजे बंद।।
सब दरवाजे बंद, घुटन से जीवन भरता।
रहता नित्य सशंक, और पग पग पर डरता।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ ही जीवन जाये।
खो देता सुख चैन, व्यक्ति जो छल अपनाये।।

***

तिनका तिनका कीमती , चिड़िया को पहचान।
नीड़ बने तिनका अगर, बढ़ जाता है मान।।
बढ़ जाता है मान, और शोभा बढ़ जाती।
होता नव उत्कर्ष, जिंदगी हँसती गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सार्थक है श्रम जिनका।
पा उनका सानिध्य, कीमती बनता तिनका।।

***

परछाई सी कर्म-गति, हर पल रहती साथ।
जीव बैल की नाक सा, कर्म नाक की नाथ।।
कर्म नाक की नाथ, नियंत्रण अपना रखता।
जैसा करता कर्म, व्यक्ति वैसा फल चखता।
‘ठकुरेला’ कविराय, शास्त्र बतलाते, भाई।
बन जाती प्रारब्ध, कर्म की यह परछाई।।

***

अनुभव समझाता यही, जीवन है संघर्ष।
दस्तक देता दुख कभी, कभी छलकता हर्ष।।
कभी छलकता हर्ष, कभी चुभ जाता काँटा।
करता रहता तंग, समय का असमय चाँटा।
‘ठकुरेला’ कविराय, गणित इस जग का बेढब।
होते रहते नित्य, ज़िन्दगी को नव अनुभव।।

***

मिलती है मन को खुशी, जब हों दूर विकार।
नहीं रखा हो शीश पर, चिन्ताओं का भार।।
चिन्ताओं का भार, द्वेष का भाव नहीं हो।
जगत लगे परिवार, आदमी भले कहीं हो।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखों की बगिया खिलती।
खुशी बाँटकर, मित्र, खुशी बदले में मिलती।।