शाश्वत-काव्यगंधा -कुण्डलिया संग्रह -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 5
शाश्वत
आगे बढ़ता साहसी, हार मिले या हार।
नयी ऊर्जा से भरे, बार-बार हर बार।।
बार- बार हर बार, विघ्न से कभी न डरता।
खाई हो कि पहाड़, न पथ में चिंता करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, विजय रथ पर जब चढ़ता।
हों बाधायें लाख, साहसी आगे बढ़ता।।
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ताली बजती है तभी, जब मिलते दो हाथ।
एक एक ग्यारह बनें, अगर खड़े हों साथ।।
अगर खड़े हों साथ, अधिक ही ताकत होती।
बनता सुन्दर हार, मिलें जब धागा, मोती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखी हो जाता माली।
खिलते फूल अनेक, खुशी में बजती ताली।।
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बैठा रहता जब कोई, मन में आलस मान।
कभी समय की रेत पर, बनते नहीं निशान।।
बनते नहीं निशान, व्यक्ति खुद को ही छलता।
उसे मिला गंतव्य, लक्ष्य साधे जो चलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, युगों का अनुभव कहता।
खो देता सर्वस्व, सदा जो बैठा रहता।।
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बीते दिन का क्रय करे, इतना कौन अमीर।
कभी न वापस हो सके, धनु से निकले तीर।।
धनु से निकले तीर, न खुद तरकश में आते।
मुँह से निकले शब्द, नया इतिहास रचाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भले कोई जग जीते।
थाम सका है कौन, समय जो पल पल बीते।।
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आती रहती आपदा, जीवन में सौ बार।
किन्तु कभी टूटें नहीं, उम्मीदों के तार।।
उम्मीदों के तार, नया विश्वास जगायें।
करके सतत प्रयास, विजय का ध्वज फहरायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी तन मन पर छाती।
जब बाधायें जीत, सफलता द्वारे आती।।
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यदि हम चाहें सीखना, शिक्षा देती भूल।
अर्थवान होती रहीं, कुछ बातें प्रतिकूल।।
कुछ बातें प्रतिकूल, रंग जीवन में भरतीं।
धारायें विपरीत, बहुत उद्वेलित करतीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद संबन्ध निबाहें।
सबसे मिलती सीख, सीखना यदि हम चाहें।।
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चुप रहना ही ठीक है, कभी न भला प्रलाप।
काम आपका बोलता, जग में अपने आप।।
जग में अपने आप, दूर तक खुशबू जाती।
तम हर लेती ज्योति, कभी गुण स्वयं न गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं के गुण क्या कहना।
करके अच्छे काम, भुला देना, चुप रहना।।
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रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।।
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यह जीवन है बांसुरी, खाली खाली मीत।
श्रम से इसे संवारिये, बजे मधुर संगीत।।
बजे मधुर संगीत, खुशी से सबको भर दे।
थिरकें सबके पांव, हृदय को झंकृत कर दे।
‘ठकुरेला’ कविराय, महकने लगता तन मन।
श्रम के खिलें प्रसून, मुस्कुराता यह जीवन।।
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तन का आकर्षण रहा, बस यौवन पर्यन्त।
मन की सुंदरता भली, कभी न होता अंत।।
कभी न होता अंत, सुशोभित जीवन करती।
इसकी मोहक गंध, सभी में खुशियाँ भरती।
‘ठकुरेला’ कविराय, मूल्य है सुन्दर मन का।
रहता है दिन चार, मित्र आकर्षण तन का।।
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दोष पराये भूलता, वह उत्तम इंसान।
याद रखे निज गलतियां, होता वही महान।।
होता वही महान, सीख ले जो भूलों से।
चुने विजय के फूल, न घबराये शूलों से।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं को मुकुर दिखाये।
खुद की रखे संभाल, देखकर दोष पराये।।
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चन्दन की मोहक महक, मिटा न सके भुजंग।
साधु न छोड़े साधुता, खल बसते हों संग।।
खल बसतें हों संग, नहीं अवगुण अपनाता।
सुन्दर शील स्वभाव, सदा आदर्श सिखाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनन्दन।
गुण के कारण पूज्य, साधु हो या फिर चन्दन।।
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कस्तूरी की चाह में, वन वन हिरन उदास।
मानव सुख को ढूंढता, सुख उसके ही पास।।
सुख उसके ही पास, फिरे वह मारा मारा।
लौटे खाली हाथ, हार कर मन बन्जारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, मिटे जब मन की दूरी।
हो जाती उपलब्ध, सहज सुख की कस्तूरी।।
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भातीं सब बातें तभी, जब हो स्वस्थ शरीर।
लगे बसन्त सुहावना, सुख से भरे समीर।।
सुख से भरे समीर, मेघ मन को हर लेते।
कोयल, चातक, मोर, सभी अगणित सुख देते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहारें दौड़ी आतीं।
तन मन रहे अस्वस्थ, कौन सी बातें भातीं।।
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मन ललचाता ही रहे, भरे हुए हों कोष।
आता है सुख चैन तब, जब आता संतोष।।
जब आता संतोष, लालसा ज़रा न रहती।
रात दिवस अविराम, सुखों की नदिया बहती।
‘ठकुरेला’ कविराय, तृप्ति संतोषी पाता।
कभी न बुझती प्यास, व्यक्ति जब मन ललचाता।।
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जिसने झेली दासता, उसको ही पहचान।
कितनी पीड़ा झेलकर, कटते हैं दिनमान।।
कटते हैं दिनमान, मान मर्यादा खोकर।
कब होते खग मुग्ध, स्वर्ण पिंजरे में सोकर।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुलामी चाही किसने।
जीवन लगा कलंक, दासता झेली जिसने।।
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लगते ढोल सुहावने, जब बजते हों दूर।
चंचल चितवन कामिनी, दूर भली मशहूर।।
दूर भली मशहूर, सदा विष भरी कटारी।
कभी न रहती ठीक, छली, कपटी की यारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, सन्निकट संकट जगते।
विषधर, वननृप, आग, दूर से अच्छे लगते।।
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जीना है अपने लिये, पशु को भी यह भान।
परहित में मरता रहा, युग युग से इंसान।।
युग युग से इंसान, स्वार्थ को किया तिरोहित।
द्रवित करे पर-पीर, पराये सुख पर मोहित।
‘ठकुरेला’ कविराय, गरल परहित में पीना।
यह जीवन दिन चार, जगत हित में ही जीना।।
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रहता है संसार में सदा न कुछ अनुकूल।
खिलकर कुछ दिन बाग़ में, गिर जाते हैं फूल।।
गिर जाते हैं फूल, एक दिन पतझड़ आता।
रंग, रूप, रस, गंध, एकरस क्या रह पाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का दरिया बहता।
जग परिवर्तनशील, न कुछ स्थाई रहता।।
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चलता राही स्वयं ही, लोग बताते राह।
कब होता संसार में, कर्म बिना निर्वाह।।
कर्म बिना निर्वाह, न कुछ हो सका अकारण।
यह सारा संसार, कर्म का ही निर्धारण।
‘ठकुरेला’ कविराय, कर्म से हर दुख टलता।
कर्महीनता मृत्यु, कर्म से जीवन चलता।।
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रिश्ते-नाते, मित्रता, समय, स्वास्थ्य, सम्मान।
खोने पर ही हो सका, सही मूल्य का भान।।
सही मूल्य का भान, पास रहते कब होता।
पिंजरा शोभाहीन, अगर उड़ जाये तोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, अल्पमति समझ न पाते।
रखते बडा महत्व, मित्रता, रिश्ते-नाते।।
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लोहा होता गर्म जब, तब की जाती चोट।
सर्दी में अच्छा लगे, मोटा ऊनी कोट।।
मोटा ऊनी कोट, ग्रीष्म में किसको भाया।
किया समय से चूक, काम वह काम न आया।
‘ठकुरेला’ कविराय, उचित शब्दों का दोहा।
भरता शक्ति असीम, व्यक्ति को करता लोहा।।
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छाया कितनी कीमती, बस उसको ही ज्ञान।
जिसने देखें हो कभी, धूप भरे दिनमान।।
धूप भरे दिनमान, फिरा हो धूल छानता।
दुख सहकर ही व्यक्ति, सुखों का मूल्य जानता।
‘ठकुरेला’ कविराय, बटोही ने समझाया।
देती बड़ा सुकून, थके हारे को छाया।।
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मकड़ी से कारीगरी, बगुले से तरकीब।
चींटी से श्रम सीखते, इस वसुधा के जीव।।
इस वसुधा के जीव, शेर से साहस पाते।
कोयल के मृदु बोल, प्रेरणा नयी जगाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भलाई सबने पकड़ी।
सबसे मिलती सीख, श्वान, घोड़ा या मकड़ी।।
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निर्मल सौम्य स्वभाव से, बने सहज सम्बन्ध।
बरबस खींचे भ्रमर को, पुष्पों की मृदुगंध।।
पुष्पों की मृदुगंध, तितलियां उड़कर आतीं।
स्वार्थहीन हों बात, उम्र लम्बी तब पातीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, मोह लेती नद कल कल।
रखतीं अमिट प्रभाव, वृत्तियां जब हों निर्मल।।
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मालिक है सच में वही, जो भोगे, दे दान।
धन जोड़े, रक्षा करे, उसको प्रहरी मान।।
उसको प्रहरी मान, खर्च कर सके न पाई।
हर क्षण धन का लोभ, रात दिन नींद न आई।
‘ठकुरेला’ कविराय, लालसा है चिर-कालिक।
मेहनत की दिन रात, बने चिंता के मालिक।।
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