शाश्वत-काव्यगंधा -कुण्डलिया संग्रह -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 4

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शाश्वत-काव्यगंधा -कुण्डलिया संग्रह -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 4

शाश्वत

***

भाषा में हो मधुरता, जगत करेगा प्यार।
मीठे शब्दों ने किया, सब पर ही अधिकार।
सब पर ही अधिकार, कोकिला किसे न भाती।
सब हो जाते मुग्ध, मधुर सुर में जब गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, जगाती मन में आशा।
सहज बनाये काम, मंत्र है मीठी भाषा।।

***

मतलब के इस जगत में, किसे पूछता कौन।
सीधे से इस प्रश्न पर, सारा जग है मौन।।
सारा जग है मौन, सभी मतलब के साथी।
दिखलाने के दाँत, और रखता है हाथी।
‘ठकुरेला’ कविराय, गणित हैं अपने सबके।
कौन यहाँ निष्काम, मीत हैं सब मतलब के।।

***

सोता जल्दी रात को, जल्दी जागे रोज।
उसका मन सुख से भरे, मुख पर छाये ओज।
मुख पर छाये ओज, निरोगी बनती काया।
भला करे भगवान्, और घर आये माया।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहुत से अवगुण खोता।
शीघ्र जगे जो नित्य, रात को जल्दी सोता।।

***

फीकी लगती जिन्दगी, रंगहीन से चित्र।
जब तक मिले न आपको, कोई प्यारा मित्र।।
कोई प्यारा मित्र, जिसे हमराज बनायें।
हों रसदायक बात, व्यथा सब सुनें, सुनायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्याधि हर लेता जी की।
जब तक मिले न मित्र, जिन्दगी लगती फीकी।।

***

भटकाओगे मन अगर, इधर उधर हर ओर।
पकड़ न पाओगे सखे, तुम कोई भी छोर।।
तुम कोई भी छोर, बीच मँझधार फँसोगे।
अपयश मिले अपार, और बेचैनी लोगे।
‘ठकुरेला’ कविराय, हाथ खाली पाओगे।
पछताओगे यार, अगर मन भटकाओगे।।

***

जब तक ईश्वर की कृपा, तब तक सभी सहाय।
होती रहती सहज ही, श्रम से ज्यादा आय।।
श्रम से ज्यादा आय, फाड़कर छप्पर मिलता।
बाधा रहे न एक, कुसुम सा तन मन खिलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं रहता कोई डर।
सुविधा मिलें तमाम, साथ हो जब तक ईश्वर।।

***

सब कुछ पाकर भी जिन्हें, नहीं हुआ संतोष।
जीवन के हर कदम पर, दें औरों को दोष।।
दें औरों को दोष, लालसा हावी रहती।
और और की मांग, विचारों में है बहती।
‘ठकुरेला’ कविराय, लोभ अरि ही है सचमुच।
मन में रहे विषाद, भले ही पा लें सब कुछ।।

***

पूछे कौन गरीब को, धनिकों की जयकार।
धन के माथे पर मुकुट, और गले में हार।।
और गले में हार, लुटाती दुनिया मोती।
आव भगत हर बार, अगर धन हो तब होती।
‘ठकुरेला’ कविराय, बिना धन नाते छूछे।
धन की ही मनुहार, बिना धन जग कब पूछे।।

***

सोना चांदी सम्पदा, सबसे बढ़कर प्यार।
ढाई आखर प्रेम के, इस जीवन का सार।।
इस जीवन का सार, प्रेम से सब मिल जाता।
मिलें सभी सुख भोग, मान, यश, मित्र, विधाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, प्रेम जैसा क्या होना।
बडा कीमती प्रेम, प्रेम ही सच्चा सोना।।

***

जनता उसकी ही हुई, जिसके सिर पर ताज।
या फिर उसकी हो सकी, जो हल करता काज।।
जो हल करता काज, समय असमय सुधि लेता।
सुनता मन की बात, जरूरत पर कुछ देता।
‘ठकुरेला’ कविराय, वही मनमोहन बनता।
जिसने बांटा प्यार, हुई उसकी ही जनता।।

***

धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव।
मंजिल पर जा पहुंचती, डगमग होती नाव।।
डगमग होती नाव, अन्ततः मिले किनारा।
मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के बजें मंजीरे।
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे।।

***

तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़।।
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।।

***

पछताना रह जायेगा, अगर न पाये चेत।
रोना धोना व्यर्थ है, जब खग चुग लें खेत।।
जब खग चुग लें खेत, फसल को चैपट कर दें।
जीवन में अवसाद, निराशा के स्वर भर दें।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का मोल न जाना।
रहते रीते हाथ, उम्र भर का पछताना।।

***

कहते आये विद्वजन, यदि मन में हो चाह।
पा लेता है आदमी, अँधियारे में राह।।
अँधियारे में राह, न रहती कोई बाधा।
मिला उसे गंतव्य, लक्ष्य जिसने भी साधा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के झरने बहते।
चाह दिखाती राह, गहन अनुभव यह कहते।।

***

मानव मानव एक से, उन्हें न समझें भिन्न।
ये आपस के भेद ही, मन को करते खिन्न।।
मन को करते खिन्न, आपसी प्रेम मिटाते।
उग आते विष बीज, दिलों में दूरी लाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बैठता मन में दानव।
आते हैं कुविचार, विभाजित हो यदि मानव।।

***

आजादी का अर्थ है, सब ही रहें स्वतंत्र।
किन्तु बंधे हों सूत्र में, जपें प्रेम का मंत्र।।
जपें प्रेम का मंत्र, और का दुख पहचानें।
दें औरों को मान, न केवल अपनी तानें।
‘ठकुरेला’ कविराय, बात है सीधी सादी।
दे सबको सुख-चैन, वही सच्ची आजादी।।

***

बढ़ता जाता जगत में, हर दिन उसका मान।
सदा कसौटी पर खरा, रहता जो इन्सान।।
रहता जो इन्सान, मोद सबके मन भरता।
रखे न मन में लोभ, न अनुचित बातें करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, कीर्ति- किरणों पर चढ़ता।
बनकर जो निष्काम, पराये हित में बढ़ता।।

***

बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में।
‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता।।

***

जिनके भी मन में रही, कुछ पाने की चाह।
उन्हें चाहिए ध्यान दें, देखें नदी प्रवाह।।
देखें नदी प्रवाह, किस तरह अनथक बहती।
सागर का सानिध्य, अन्ततः पाकर रहती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सहारा बनते तिनके।
मिला उन्ही को लक्ष्य, चाह थी मन में जिनके।।

***

जैसे सागर में लहर, उठती अपने आप।
मानव जीवन में सहज, आते सुख, संताप।।
आते सुख, संताप, किन्तु कैसा घबराना।
जो आता है आज, नियत कल उसका जाना।
‘ठकुरेला’ कविराय, म्लान मुख ठीक न ऐसे।
रखकर मन में धीर, रहो तुम वीरों जैसे।।

***

चन्दन चन्दन ही रहा, रहे सुगन्धित अंग।
बदल न सके स्वभाव को, मिलकर कई भुजंग।।
मिलकर कई भुजंग, प्रभावित कभी न करते।
जिनका संत स्वभाव, खुशी औरों में भरते।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनंदन।
देकर मधुर सुगन्ध, पूज्य बन जाता चन्दन।।

***

कभी न रहते एक से, जीवन के हालात।
गिर जाते हैं सूखकर, कोमल चिकने पात।।
कोमल चिकने पात, हाय, मिट्टी में मिलते।
कलियां बनती फूल, फूल भी सदा न खिलते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय धारा में बहते।
पल पल बदलें रूप, एकरस कभी न रहते।।

***

ताकत ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात।
हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात।।
चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते।
कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।
‘ठकुरेला’ कविराय, हुआ इतना ही अवगत।
समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत।।

***

काशी जाने से कभी, गधा न बनता गाय।
ठीक न हो यदि आचरण, हैं सब व्यर्थ उपाय।।
हैं सब व्यर्थ उपाय, पात्र जब ठीक न होता।
समझो मंद किसान, बीज बंजर में बोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, आत्मा जब तक दासी।
लौटे खाली हाथ, पहुँचकर मथुरा, काशी।।

***

काँटे लाया साथ में, जब भी उगा बबूल।
सदा मूर्खों ने दिया, वृथा बात को तूल।।
वृथा बात को तूल, सार को कभी न गहते।
औरों से दिन रात, अकारण उलझे रहते।
‘ठकुरेला’ कविराय, मूर्ख ने दुख ही बाँटे।
बांटी गहरी पीर, चुभे जब जब भी काँटे।।

***

आती है तितली तभी, जब खिलते हों फूल।
सब चाहें मौसम रहे, उनके ही अनुकूल।।
उनके ही अनुकूल, करें मतलब से प्रीती।
देव, दनुज, नर, नाग, स्वार्थमय सबकी रीती।
‘ठकुरेला’ कविराय, भलाई अपनी भाती।
करती मतलब सिद्ध, पास दुनिया जब आती।।

***

अन्यायी राजा मरे, जिये न भोगी संत।
ब्याह करे घर त्याग दे, निंदनीय वह कंत।।
निंदनीय वह कंत, झूठ यदि मंत्री बोले।
कैसा घर परिवार, भेद यदि घर का खोले।
‘ठकुरेला’ कविराय, समझिये आफत आयी।
सच न कहें गुरु, वैद्य, बने राजा अन्यायी।।

***

अपनों का अपमान कर, पाओगे बस खेद।
पता नहीं कब खोल दें, वे ही घर का भेद।।
वे ही घर का भेद, जन्म लें सौ आशंका।
हुआ विभीषण रुष्ट, जली सोने की लंका।
‘ठकुरेला’ कविराय, महल बिखरे सपनों का।
नहीं करें अपमान, भूलकर भी अपनों का।।

***

अन्तर्मन को बेधती, शब्दों की तलवार।
सहज नहीं है जोड़ना, टूटे मन के तार।।
टूटे मन के तार, हृदय आहत हो जाये।
होता नहीं निदान, वैद्य धन्वंतरि आये।
‘ठकुरेला’ कविराय, सरसता दो जीवन को।
बोलो ऐसे शब्द, रुचें जो अंतर्मन को।।

***

खटिया छोड़ें भोर में, पीवें ठण्डा नीर।
मनुआ खुशियों से भरे, रहे निरोग शरीर।।
रहे निरोग शरीर, वैद्य घर कभी न आये।
यदि कर लें व्यायाम, बज्र सा तन बन जाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, भली है सुख की टटिया।
जल्दी सोयें नित्य, शीघ्र ही छोड़ें खटिया।।

***

भाषा कागज़ पर लिखी, सब लेते हैं जान।
किन्तु हृदय के पृष्ठ पर, क्या किसको पहचान।।
क्या किसको पहचान, छिपा हो क्या क्या मन में।
भीतर से कुछ और, और ही कुछ जीवन में।
‘ठकुरेला’ कविराय, किसी मन की अभिलाषा।
रहती एक रहस्य, न बनती जब तक भाषा।।

***

दासी वाला संत हो, खाँसी वाला चोर।
समझो दोनों जा रहे, बर्बादी की ओर।।
बर्बादी की ओर, समझिये किस्मत खोटी।
हँसी बिगाड़े प्यार, स्वास्थ्य को बासी रोटी।
‘ठकुरेला’ कविराय, हरे उत्साह उदासी।
होता बड़ा अनर्थ, अगर मुँहफट हो दासी।।

***

काँटा बुरा करील का, बादल वाली धूप।
सचिव बुरा यदि मंदमति, बिन पानी का कूप।।
बिन पानी का कूप, पुत्र जो कहा न माने।
नौकर हो यदि चोर, मित्र मतलब पहचाने।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का असमय चाँटा।
रहे कोई भी सँग, चुभे जीवन भर काँटा।।

***

घातक खल की मित्रता, जहर पराई नारि।
विष से बुझी कटार हो, सिर से ऊपर वारि।।
सिर से ऊपर वारि, गाँव से वैर ठना हो।
कर लेकर तलवार, सामने शत्रु तना हो।
‘ठकुरेला’ कविराय, अभागा है वह जातक।
स्वजन ठान लें वैर, और बन जायें घातक।।

***

घोड़ा हो यदि कटखना, कपट भरा हो मित्र।
पुत्र चोर, कर्कश त्रिया, हालत बने विचित्र।।
हालत बने विचित्र, रहे यदि घर में साला।
बाँटे अगर उधार, और हँस माँगे लाला।
‘ठकुरेला’ कविराय, बैल-भैंसा का जोड़ा।
देता कष्ट सदैव, अगर अड़ियल हो घोड़ा।।

***

अपना अपना सब कहें, जब तक रहता माल।
हँसी ठहाकों से भरे, मित्रों की चैपाल।।
मित्रों की चैपाल, सभी सुधि लेने आते।
बनें ईद का चाँद, सकल धन माया जाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, जगत बन जाता सपना।
धन के मित्र हजार, बिना धन एक न अपना।।

***

पंडित का मन डोलता, जब देखे धन माल।
जो धन के ही दास हैं, उनका कैसा हाल।।
उनका कैसा हाल, रात-दिन धन पर मरते।
हो सम्पदा अपार, पेट तब भी कब भरते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भरोसा होता खंडित।
धन के लिये सदैव, झगड़ते लड़ते पंडित।।

***

नारी की गाथा वही, यह युग हो कि अतीत।
सदा दर्द सहती रही, सदा रही भयभीत।।
सदा रही भयभीत, द्रोपदी हो या सीता।
मिले विविध संत्रास, दुखों में जीवन बीता।
‘ठकुरेला’ कविराय, कहानी कितनी सारी।
सहती आयी हाय, सदा से ही दुख नारी।।

***

किसने पूछा है उसे, जिसको रहा अभाव।
कब जाती उस पार तक, यदि जर्जर हो नाव।।
यदि जर्जर हो नाव, बहुत ही दूर किनारा।
जब कुछ होता पास, मान देता जग सारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, पा लिया वैभव जिसने।
सदा उसी की पूछ, उसे ठुकराया किसने।।

***

लोभी से कर याचना, किसे मिला कुछ हाय।
बड़ा अभागा आदमी, दुहे निठल्ली गाय।।
दुहे निठल्ली गाय, शीश पत्थर से मारे।
नहीं समझता मूर्ख, जगत समझा कर हारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, यत्न करते हों जो भी।
सह लेता सौ कष्ट, न कुछ भी देता लोभी।।

***

आता हो यदि आपको, बात बात पर ताव।
समझो खुद पर छिड़कते, तुम खुद ही तेजाब।।
तुम खुद ही तेजाब, जिन्दगी का रस जलता।
क्रोध-कढ़ाई मध्य, आदमी खुद को तलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, चाँद सुख का छिप जाता।
बहुविधि करे अनर्थ, क्रोध जब जब भी आता।।

***

करता रहता है समय, सबको ही संकेत।
कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।।
पर कुछ रहें अचेत, बन्द कर बुद्धि झरोखा।
खाते रहते प्रायः, वही पग पग पर धोखा।
‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति हर क्षण डरता।
जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।।

***

रीता घट भरता नहीं, यदि उसमें हो छेद।
जड़मति रहता जड़ सदा, नित्य पढ़ाओ वेद।।
नित्य पढ़ाओ वेद, बुद्धि रहती है कोरी।
उबटन करके भैंस, नहीं हो सकती गोरी।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ ही जीवन बीता।
जिसमें नहीं विवेक, रहा वह हर क्षण रीता।।

***

थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध।।
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।।

***

रहता जब जब साथ में, काले करता हाथ।
अंग जलाता कोयला, पा पावक का साथ।।
पा पावक का साथ, हुआ छूने पर घाटा।
कभी न रहता ठीक, श्वान का काटा, चाटा।
‘ठकुरेला’ कविराय, जगत युग युग से कहता।
अधम मनुज का प्रेम, कभी भी सुखद न रहता।।

***

सिखलाता आया हमें, आदिकाल से धर्म।
मूल्यवान है आदमी, यदि अच्छे हों कर्म।।
यदि अच्छे हों कर्म, न केवल बात बनाये।
रखे और का ध्यान, न पशुवत खुद ही खाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, मनुजता से हो नाता।
है परहित ही धर्म, शास्त्र सबको सिखलाता।।

***

जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिये निकाल।।
कुछ हल लिये निकाल, असर कुछ कम हो जाता।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, ताप कम होते मन के।
खुल जाते हैं द्वार, जगत में नवजीवन के।।

***

आ जाते हैं और के, जो गुण हमको रास।
वे गुण अपने हो सकें, ऐसा करें प्रयास।।
ऐसा करें प्रयास, और गुणवान कहायें।
बदलें निज व्यवहार, प्रशंसा सबसे पायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणी ही सबको भाते।
जग बन जाता मित्र, सहज ही सुख आ जाते।।

***

बहता जल के साथ में, सारा ही जग मीत।
केवल जीवन बह सका, धारा के विपरीत।।
धारा के विपरीत, नाव मंजिल तक जाती।
करती है संघर्ष, जिन्दगी हँसती गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी का अनुभव कहता।
धारा के विपरीत, सिर्फ जीवन ही बहता।।

***