रचनाएँ १९६२-१९६३ की -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

रचनाएँ १९६२-१९६३ की -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

शब्‍द-शर

लक्ष्‍य-भेदी
शब्‍द-शर बरसा,
मुझे निश्‍चय सुदृढ़,
यह समर जीवन का
न जीता जा सकेगा।

शब्‍द-संकुल उर्वरा सारी धरा है;
उखाड़ो, काटो, चलाओ-
किसी पर कुछ भी नहीं प्रतिबंध;
इतना कष्‍ट भी करना नहीं,
सबको खुला खलिहान का है कोष-
अतुल, अमाप और अनंत।

शत्रु जीवन के, जगत के,
दैत्‍य अचलाकार
अडिग खड़े हुए हैं;
कान इनके विवर इतने बड़े
अगणित शब्‍द-शर नित
पैठते है एक से औ’
दूसरे से निकल जाते।
रोम भी उनका न दुखता या कि झड़ता
और लाचारी, निराशा, क्‍लैव्‍य कुंठा का तमाशा
देखना ही नित्‍य पड़ता।

कब तलक,
औ’ कब तलक,
यह लेखनी की जीभ की असमर्थ्‍यता
निज भाग्‍य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ’ कब तलक,
अपमान औ’ उपहासकर
ऐसी उपेक्षा शब्‍द की होती रहेगी?

कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मुखिया
वज्रदंत, निशंक मुख की;
मुख न होगा
गगन-गर्विले,
समुन्‍नत-भाल
सर का;
सर न होगा
सिंधु की गहराइयें से
धड़कनेवाले हृदय से युक्‍त
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजाओं का
कि जो है एक पर
संजीवनी का श्रृंग साधो,
एक में विध्‍वंस-व्‍यग्र
गदा संभाले,
उन पगों का-
अंगदी विश्‍वासवाले-
जो कि नीचे को पड़ें तो
भूमी काँपे
और ऊपर को उठें तो
देखते ही देखते
त्रैलोक्‍य नापें।

सह महा संग्राम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो दूर है, लड़ना भी
कभी संभव नहीं है
शब्‍द के शर छोड़नेवाले
सतत लघिमा-उपासक मानवों से;
एक महिमा ही सकेगी
होड़ ले इन दानवों से।

लेखनी का इशारा

ना ऽ ऽ ऽ ग!
-मैंने रागिनी तुझको सुनाई बहुत,
अनका तू न सनका-
कान तेरे नहीं होते,
किन्‍तु अपना कान केवल गान के ही लिए
मैंने कब सुनाया,
तीन-चौथाई हृदय के लिए होता।
इसलिए कही तो तुझेमैंने कुरेदा और छेड़ा
भी कि तुझमें जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ाा होगा,
गरल-फुफकार छोड़ेगा,
चुनौती करेगा स्‍वीकार मेरी,
किन्‍तु उलझी रज्‍जु की तू एक ढेरी।

इसी बल पर,
धा ऽ ऽ ऽ ध,
कुंडल मारकर तू
उस खजाने पर तू डटा बैठा हुआ है
जो हमारे पूर्वजों के
त्‍याग, तप बलिदान,
श्रम की स्‍वेद की गाढ़ी कमाई?
हमें सौपी गई थी यह निधि
कि भोगे त्‍याग से हम उसे,
जिससे हो सके दिन-दिन सवाई;
किन्‍तु किसका भोग,
किसका त्‍याग,
किसकी वृद्धि‍।
पाई हुई भी है
आज अपनाई-गँवाई।

दूर भग,
भय कट चुका,
भ्रम हट चुका-
अनुनय-विनय से
रीझनेवाला हृदय तुझमें नहीं है-
खोल कुंडल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझमें नहीं अब,
क्‍यों कि उससे विषमतर विषपर
बहुत दिन तू पला है,
चाटता चाँदी रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
लट्ठबाजों की कमी
कुछ नहीं मेरे भाइयों में,
पर मरे को मार करके-
लिया ही जिसने, दिया कुछ नहीं,
यदि वह जिया तो कौन मुर्दा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!
क़लम से ही
मार सकता हूँ तुझे मैं;
क़लम का मारा हुया
बचता नहीं है।
कान तेरे नहीं,
सुनता नहीं मेरी बात
आँखें खोलकर के देख
मेरी लेखनी का तो इशारा-
उगा-डूबा है इसी पर
कहीं तुझसे बड़ों,
तुझसे जड़ों का
कि़स्‍मत-सितारा!

 विभाजितों के प्रति

दग्‍ध होना ही
अगर इस आग में है
व्‍यर्थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना
व्‍यर्थ बावेला मचाना।

पूछ अपने आप से
उत्‍तर मुझे दो,
अग्नियुत हो?
बग्नियुत हो?

आग अलिंगन करे
यदि आग को
किसलिए झिझके?
चाहिए उसको भुजा भर
और भभके!

और अग्नि
निरग्नि को यदि
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो सौभाग्‍य रेखा जगमगाई-
आग जाकर लौट आई!

किन्‍तु शायद तुम कहोगे
आग आधे,
और आधे भाग पानी।
तुम पवभाजन की, द्विधा की,
डरी अपने आप से,
ठहरी हुई-सी हो कहानी।
आग से ही नहीं
पानी से डरोगे,
दूर भागोगे,
करोगे दीन क्रंदन,
पूर्व मरने के
हजार बार मरोगे।

क्‍यों कि जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह बिभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।

भिगाए जा, रे

भीग चुकी अब जब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे

आँखों में तस्‍वीर कि सारी
सूखी-सूखी साफ़, अदागी,
पड़नी थी दो छींट छटटकर
मैं तेरी छाया से भागी!
बचती तो कड़ हठ, कुंठा की
अभिमानी गठरी बन जाती;
भाग रहा था तन, मन कहता
जाता था, पिछुआए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

सब रंगों का मेल कि मेरी
उजली-उजली सारी काली
और नहीं गुन ज्ञात कि जिससे
काली को कर दूँ उजियाली;
डर के घर में लापरवाही,
निर्भयता का मोल बड़ा है;
अब जो तेरे मन को भाए
तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

कठिन कहाँ था गीला करना,
रँग देना इस बसन, बदन को,
मैं तो तब जानूँ रस-रंजित
कर दे जब को मेरे मन को,
तेरी पिचकारी में वह रंग,
वह गुलाल तेरी झोली में,
हो तो तू घर, आँगन, भीतर,
बाहर फाग मचाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!

मेरे हाथ नहीं पिचकारी
और न मेरे काँधे झोरी,
और न मुझमें हैबल, साहस,
तेरे साथ करूँ बरजोरी,
क्‍या तेरी गलियों में होली
एक तरफ़ी खेली जाती है?
आकर मेरी आलिंगन में
मेरे रँग रंगाए जा, रे?
भीग चुकी अब जब सब सारी,
जितना चाह भिगाए जा, रे!