ये और वे-स्मृति सत्ता भविष्यत् -विष्णु दे -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vishnu Dey 

ये और वे-स्मृति सत्ता भविष्यत् -विष्णु दे -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vishnu Dey

 

ये फाल्गुन में महुआ की ज्यामितीय बहार से मुग्ध हो जाते हैं ।
अजेय विन्यास से डालों पर पत्रहीन फूल खिल उठते हैं,
मानो किसी मजूर या किसान के देशी प्रतीक हों,
तनिक भी मेद नहीं, सिर्फ़ पेशियाँ, झुलसे भीगे हाड़ों में
गांठ-गांठ में कठोर मिट्टी की शक्ति फूल उठी हो।

इसी लिए ये मुग्ध हो जाते हैं, वासन्ती मैदान में विचरने वाले ।
और वे कितने उत्साह से फूल फल बीज कोठों में जमा करते हैं,
सब कुछ बीन लेते हैं, महआ की कृपा से कुछ महीने कट जायेंगे ।

इसी प्रकार एक ही क्रिया की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं देखी हैं
हम विह्वल दृष्टि से शरद् के नवाबी आसमान में
डूबता सूरज देख कर अवाक् मुग्ध हो जाते हैं, और वे चिन्ता से विकल
कि कहीं नवान्न की हरियाली लाल बादलों के स्वर्णप्रवाह में न बह जाये;
हम जिस बात से मगन हो जाते हैं वे उसी से अन्धे या बहरे ।

फिर भी सब एक हैं, दोनों को एक ही प्रकृति है,
सिर्फ हमारा शिल्प मूल्य निश्चित करने में मूल को भूल गया है-
महुआनिर्भर और मेघजीवी इस देश की स्मृति है,
सिर्फ़ आज ग्रन्थि छिन्न हो गयी है, तभी तो दफ़्तर और प्रान्तर में भेद है।
वे किसान नर-नारी हैं, और ये भव्य किरानी ॥

२६।२।५८