मुखौटे-बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh

मुखौटे-बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh

 

तब, जब सब सो जाते
दु:खीजन जग उठता।
आसमान आँखों के आगे झूले
नीचे शहर झूलता, और मकान
तारों जैसे एक दूसरे से मिलते हैं –
रात्रिकाल का निर्जन रस्ता,
गालों पर आँसू की लम्बी रेखा जैसा
समय तैरता जलस्रोत पर,
और
सब कोई जब सोते हों, तब
दिन के मुखौटे उतारकर रख
हिम्मत करके सच्ची-सच्ची बोल।