मम्दूह-दर्द आशोब -अहमद फ़राज़-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Ahmed Faraz,
मैंने कब की है तिरे काकुलो-लब की तारीफ़
मैंने कब लिक्खे क़सीदे तिरे रुख़सारों के
मैंने कब तेरे सरापा की हिक़ायात कहीं
मैं ने कब शेर कहे झूमते गुलज़ारों के
जाने दो दिन की महब्बत में में ये बहके हुए लोग
कैसे अफ़साने बना लेते है दाराओं के
मैं कि शायर था मेरे फ़न की रवायत थी यही
मुझको इक फूल नज़र आए तो तो गुलज़ार कहूँ
मुस्कुराती हुई हर आँख को क़ातिल जानूँ
हर निगाहे-ग़लतअन्दाज़ को तलवार कहूँ
मेरी फ़ितरत थी कि मैं हुस्ने-बयाँ की ख़ातिर
हर हसीं लफ़्ज़ को दर-मदहे-रुख़े-यार कहूँ
मेरे दिल में भी खिले हैं तेरी चाहत के कँवल
ऐसी चाहत कि जो वहशी हो तो क्या-क्या न करे
मुझे गर हो भी तो क्या ज़ोमे-तवाफ़े-शो’ला
तू है वो शम्अ कि पत्थर की भी परवा न करे
मैं नहीं कहता कि तुझ-सा है न मुझ-सा कोई
वरना शोरीदगी-ए-शौक़ तू दीवाना करे