मनहु जि अंधे कूप कहिआ बिरदु न जाणन्ही-सलोक-गुरु नानक देव जी-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Guru Nanak Dev Ji

मनहु जि अंधे कूप कहिआ बिरदु न जाणन्ही-सलोक-गुरु नानक देव जी-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Guru Nanak Dev Ji

मनहु जि अंधे कूप कहिआ बिरदु न जाणन्ही ॥
मनि अंधै ऊंधै कवलि दिसन्हि खरे करूप ॥
इकि कहि जाणहि कहिआ बुझहि ते नर सुघड़ सरूप ॥
इकना नाद न बेद न गीअ रसु रस कस न जाणंति ॥
इकना सुधि न बुधि न अकलि सर अखर का भेउ न लहंति ॥
नानक से नर असलि खर जि बिनु गुण गरबु करंति ॥२॥(1246)॥