मधुबाला -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2
मधुपायी
१.
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
पग-पायल की झनकार हुई,
पीने को एक पुकार हुई,
बस हम दीवानों की टोली
चल देने को तैयार हुई,
मदिरालय के दरवाज़ों पर
आवाज़ लगाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
२.
हमने छोड़ी कर की माला,
पोथी-पत्रा भू पर डाला,
मन्दिर-मस्जिद के बन्दीगृह
को तोड, लिया कर में प्याला
औ’ दुनिया को आज़ादी का
सन्देश सुनाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
३.
क्रोधी मोमिन हमसे झगड़ा,
पंडित ने मंत्रों से जकड़ा,
पर हम थे कब रुकनेवाले,
जो पथ पकड़ा, वह पथ पकड़ा,
पथ-भ्रष्ट जगत को मस्ती की
अब राह बताने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
४.
छिपकर सब दिन था जग पीता,
पीता न अगर कैसे जीता ?
जब हम न समझते थे इसको,
वह दिन बीता, वह युग बीता;
साक़ी से मिल मदिरा पीने
अब खुले-खज़ाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
५.
मग में कितने सागर गहरे,
कितने नद-नाले नीर-भरे,
कितने सर, निर्झर, स्रोत मिले,
पर, नहीं कहीं पर हम ठहरे;
तेरे लघु प्याले में ही बस
अपनत्व डुबाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
६.
है ज्ञात हमें नश्वर जीवन,
नश्वर इस जगती का क्षण-क्षण,
है, किन्तु, अमरता की आशा
करती रहती उर में क्रंदन,
नश्वरता और अमरता की आशा
अब द्वन्द्व मिटाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
७.
दूरस्थित स्वर्गों की छाया
से विश्व गया है बहलाया,
हम क्यों उनपर विश्वास करें,
जब देख नहीं कोई आया ?
अब तो इस पृथ्वी-तल पर ही
सुख-स्वर्ग बसाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
८.
हम लाए हैं केवल हस्ती,
ले, साक़ी, दे अपनी मस्ती,
जीवन का सौदा ख़त्म करें,
मिल मुक्ति हमें जाए सस्ती;
साक़ी, तेरे मदिरालय को
अब तीर्थ बनाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
९.
चिरजीवी हो साक़ीबाला !
चिर दिवस जिए मधु का प्याला !
जो मस्त हमें करनेवाली,
आबाद रहे वह मधुशाला !
इतने दिन जो बदनाम रही,
उसका गुण गाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१०.
दी हाथ खुले तूने हाला,
हम सबने भी जी-भर ढाला,
यह तो अनबूझ पहेली है –
क्यों बुझ न सकी अंतर्ज्वाला ?
मदिरालय से पीकर के भी
क्या प्यासे जाने हम आए ?
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
११.
कल्पना सुरा औ’ साक़ी है,
पीनेवाला एकाकी है,
यह भेद हमें जब ज्ञात हुआ,
क्या और समझना बाकी है ?
जो गाँठ न अब तक सुलझी थी,
उसको सुलझाने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
१२.
यह सपना भी बस दो पल है,
उर की भावुकता का फल है,
भोली मानवता चेत, अरे,
सब धोखा है, सारा छल है !
हम बिना पिए भी पछ़ताते,
पीकर पछ़ताने हम आए |
मधु-प्यास बुझाने आए हम,
मधु-प्यास बुझाने हम आए !
पथ का गीत
१.
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
सुन्दर-सुन्दर गीत बनाता,
गाता, सब से नित्य गवाता,
थकित बटोही का बहला मन
जीवन-पथ की श्रांति मिटाता,
यह मतवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
२.
हम सब मधुशाला जाएंगे,
आशा है, मदिरा पाएंगे,
किंतु हलाहल ही यदि होगा
पीने से कब घबराएंगे !
पीनेवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
३.
उफ़! कितने इस पथ पर आते,
पहुंच मगर, कितने कम पाते,
है हमको अफ़सोस. न इसका,
इसपर जो मरते तर जाते;
मरनेनेवाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
४.
यह तो दीवानों का दल है,
पीना सब का ध्येय अटल है,
प्राप्त न हो जब तक मधुशाला,
पड़ सकती किसके उर कल है!
वह मधुशाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
५.
झांक रहा, वह देखो, साकी
कर में एक सुराही बाँकी,
देख लिया क्या हमको आते?
धार लगी गिरने मदिरा की;
वह मघुशाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
६.
अपना-अपना पात्र संभालो,
ऊँचे अपने हाथ उठा लो,
सात बलाएं ले मदिरा की,
प्याले अपने होंठ लगा लो,
मधु का प्याला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
७.
प्याले में क्या आई हाला
नहीं, नहीं उतरी मधुबाला।
पीकर कैसे यह छवि खो दूँ-
सोच रहा हर पीनेवाला;
मादक हाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
८.
जिसमेँ झलक रही मधुशाला,
जिसमें प्रतिबिंबित मधुबाला,
कौन सकेगा पी उस मधु को
कितनी ही हो अंतर्ज्वाला?
उर की ज्वाला ज़िंदाबाद !
गुंजित कर दो पथ का कण-कण
कह मधुशाला ज़िंदाबाद !
5. सुराही
१.
मैं एक सुराही हाला की!
मैं एक सुराही मदिरा की!
मदिरालय हैं मन्दिर मेरे,
मदिरा पीनेवाले, चेरे,
पंडे-से मधु-विक्रेता को
जो निशि-दिन रहते हैं घेरे;
है देवदासियों-सी शोभा
मधुबालाओं की माला की ।
मैं एक सुराही हाला की!
२.
कोयल-बुलबुल की तान यहाँ,
घड़ियाली, और अजान यहाँ,
जिसको सुनकर खिंच आता है
पीनेवालों का ध्यान यहाँ,
तुलसी बिरवों-सी पावनता
है अंगूरों की लतिका की ।
मैं एक सुराही मदिरा की!
३.
सब आर्य प्रवर आ सकते हैं,
सब आर्येतर आ सकते हैं;
इस मानवता के मंदिर में
सब-नारी-नर आ सकते हैं;
केवल प्रवेश उसका निषिद्ध
जिसमें मधु-प्यास नहीं बाकी ।
मैं एक सुराही हाला की!
४.
सबका सम्मान समान यहाँ,
सबको समान वरदान यहाँ,
मैं शंकर-सी औढर दानी,
है मुक्ति बड़ी आसान यहाँ,
देरी है केवल फिरने की
सब पर मेरी चितवन बांकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
५.
इस मंदिर में पूजन मेरा,
अभिवादन-अभिनंदन मेरा,
निज भाग्य सराहा करते सब,
पाकर मादक दर्शन मेरा,
जिस तप से यह पदवी पाई
मैंने, कर लो उसकी झांकी!
मैं एक सुराही हाला की!
६.
मैं कुंभकार की चाक चढ़ी,
फिर मेरे तन पर बेलि कढ़ी,
तब गई चिता पा मैं रक्खी,
हर ओर अग्नि की ज्वाल बढ़ी,
जल चिता गई हो राख-राख,
मैं मिट्टी, किंतु, रही बाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
७.
मैं मृत्यु विजय करके आई,
मैंने दैवी महिमा पाई,
मानव के नीरस जीवन में
मैं अमृत-सा मधुरस लाई,
इस गुण के कारण ही तो मैं
बन प्राण गई मधुशाला की।
मैं एक सुराही हाला की!
८.
मैं मधु से नहलार्ड जाती,
फिर प्यालों की माला पाती,
तब मेरे चारों ओर खड़ी
होकर मधुबालाएँ गातीं;
इस भाँति की गई है पूजा
जगती-तल पर किस प्रतिमा की ?
मैं एक सुराही मदिरा की!
९.
मैं मिट्टी की थी, लाल हुई,
मधु पीकर और निहाल हुई,
जब चली मुझे ले मधुबाला,
‘छलछल’ करके वाचाल हुई,
जिसको सुनकर पंडित-मुल्ले
भूले सब अपनी चालाकी।
मैं एक सुराही हाला की!
१०.
अब इनकी मिन्नत कौन करे?
इनके शापों से कौन डरे?
जब स्वर्ग लिए मैं फिरती हूं,
तब कौन क़यामत तक ठहरे?
जो प्राप्त अभी, उसके हित कल
की राह किसी ने कब ताकी?
मैं एक सुराही मदिरा की!
११.
मैं मधुबाला के कंधों पर
उपदेश यही देती चढ़कर-
‘अपने जीवन के क्षण-क्षण को
लो मेरी मादकता से भर;
यह मिलना-जुलना क्षण भर का
फिर जाना सबको एकाकी।’
मैं एक सुराही हाला की!
१२.
लघु, मानव का कितना जीवन,
फिर क्यों उसपर इतना बंधन;
यदि मदिरा का ही अभिलाषी,
पी सकता कुछ गिनती के कण!
चुल्लू भर में गल सकता है
उसके तन का जामा ख़ाकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१३.
मैं हूँ प्यालों मेँ जम जाती,
मधु के वितरण में रम जाती,
भरती अगणित मुख में मदिरा,
अपनी निधि, पर, कब कम पाती;
मैं घूम जिधर पड़ती, उठती
है गूँज उधर ध्वनि ‘ला-ला’ की
मैं एक सुराही हाला की!
१४.
औरों के हित मेरी हस्ती,
औरों के हित मेरी मस्ती,
मैं पीती सिंचित करने को
इन प्यासे प्यालों की बस्ती,
आनंद उठाते ये, अपयश
की भागी बनती मैं, साकी।
मैं एक सुराही मदिरा की!
१५.
उन्मत्त- बनाना खेल नहीं,
मधु से भी बुझती प्यास कहीं;
उर तापों से पिघला मेरा,
यह नहीं सुरा की धार वही!
उर के आसव से ही होती
है शांति हृदय की ज्वाला की
मैं एक सुराही हाला की!
१६. तुमने समझा मधुपान किया?
मैंने निज रक्त प्रदान किया!
उर क्रंदन करता था मेरा,
पर मुख से मैंने गान किया!
मैंने पीड़ा को रूप दिया,
जग समझा मैंने कविता की।
मैं एक सुराही मदिरा की!
प्याला
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
१.
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हीं,
कल मादकता थी भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन?
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ–
किस कुम्भकार का यह निश्चय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
२.
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,
था भ्रमित हो रहा आसमान,
उस कलावान का कुछ रहस्य
होता फिर कैसे भासमान.
जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,
थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.
भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,
क्या ज्ञान करेगा वह संचय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
३.
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छिन,
खो गया पूर्व गुण,रंग,रूप
हो जग की ज्वाला के अधीन;
मैं चिल्लाया ‘क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर?’
लपटें बोलीं,’चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.’
यह,लो, मीणा बाज़ार जगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
४.
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,
अमरों ने अमृत दिखलाया,
दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,
बिक,मगर,गया मैं मोल बिना
जब आया मानव सरस ह्रदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
५.
बस एक बार पूछा जाता,
यदि अमृत से पड़ता पाला;
यदि पात्र हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;
चिर जीवन औ’ चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होहों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;
मेरा घर है अरमानो से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
६.
मैं सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल क्रूर काल के गलों में
जाना होगा–इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;
इन मेरी उलटी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
७.
मेरे पथ में आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
‘क्यों तू दुनिया के लोगों में
करता है मदिरा का प्रचार?’
मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
‘आनंद करो’–यह व्यंग्य भरी
है किसी दग्ध-उर की पुकार;
कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी,कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
८.
मैं देख चुका जा मसजिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;
यह पुण्य कृत्य,यह पाप क्रम,
कह भी दूँ,तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी?
यह चिर अनादि से प्रश्न उठा
मैं आज करूँगा क्या निर्णय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
९.
सुनकर आया हूँ मंदिर में
रटते हरिजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला में
जपते मतवाले जाम-जाम;
पंडित मदिरालय से रूठा,
मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,
मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;
मुझको मस्ती से महज काम.
भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों
मन को बहलाने के अभिनय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
१०.
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा तुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;
संघर्ष यहाँ किसका किससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
यह देख,यवनिका गिरती है,
समझा कुछ अपनी नादानी!
छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपना-अपना आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!
११.
पल में मृत पीने वाले के
कल से गिर भू पर आऊँगा,
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;
अधिकार नहीं जिन बातों पर,
उन बातों की चिंता करके
अब तक जग ने क्या पाया है,
मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा?
मुझको अपना ही जन्म-निधन
‘है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय!