मधुकलश -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

मधुकलश -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

 

कवि की वासना

 

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

१ सृष्टि के प्रारंभ में

सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,

प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुला‌ए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,

वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

२ विगत-बाल्य वसुंधरा के

विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,

चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;

प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

३ इन्द्रधनु पर शीश धरकर

इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,

दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न को‌ई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर

जो पलक पर कर निछावर
थी ग‌ई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हु‌ई है
यह न शयनागार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

४ आज मिट्टी से घिरा हूँ

आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,

होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;

मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

५ निष्परिश्रम छोड़ जिनको

निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विश्व भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,

भंग कर देता तपस्या
सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;

शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पा‌एगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

६ प्राण प्राणों से सकें मिल

प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन

वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!

अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

७ थी तृषा जब शीत जल की

थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने

राजसी पट पहनने को
जब हु‌ई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;

वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

८ कल छिड़ी, होगी ख़तम कल

कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूँ मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?

क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?

मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

सुषमा

 

(१) किसी समय ज्ञानी, कवि, प्रेमी,

किसी समय ज्ञानी, कवि, प्रेमी,
तीनों एक ठौर आए,
सुषमा ही से थे सबने
अपने मन-वाँच्छित फल पाए ।

सुषमा ही उपास्य देवी थीं
तीनों की त्रय कालों में ,

पर विचार सुषमा पर सबने
अलग-अलग ही ठहराए !

(२) ‘वह सुषमा थी नहीं, न उसने

‘वह सुषमा थी नहीं, न उसने
तुमको अगर प्रकाश दिया [‘
‘वह सुषमा थी नहीं, न उसने
तुझे अगर उन्मत्त किया ?’

ज्ञानी औ’ कवि की वाणी सुन
प्रेमी आहें भर बोला,

‘सुषमा न थी, नहीं यदि उसने
आत्मसात् कर मुझे लिया [‘

(३) एफ व्यक्ति साधारण उनकी

एफ व्यक्ति साधारण उनकी
बातें सुनने को आया,
मौन हुए जब तीनों तब वह
उच्चस्वर से चिल्लाया !

‘मूढ़ो मैंने अब तक उसको
कभी नहीं सुषमा समझा,
जिसके निकट पहुंचते ही,
आनद नहीं मैंने पाया !’

(४) एक बिंदु पर अब तीनों के

एक बिंदु पर अब तीनों के
मिल जाने की आशा थी,
क्या अंतिम ही सबसे अच्छी
सुषमा की परिभाषा थी ।

कवि का गीत

गीत कह इसको न दुनियाँ
यह दुखों की माप मेरे!

(१) काम क्या समझूँ न हो यदि

काम क्या समझूँ न हो यदि
गाँठ उर की खोलने को?
संग क्या समझूँ किसी का
हो न मन यदि बोलने को?

जानता क्या क्षीण जीवन ने
उठाया भार कितना,
बाट में रखता न यदि
उच्छ्वास अपने तोलने को?

हैं वही उच्छ्वास कल के
आज सुखमय राग जग में,
आज मधुमय गान, कल के
दग्ध कंठ प्रलाप मेरे.

गीत कह इसको न, दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे!

(२) उच्चतम गिरि के शिखर को

उच्चतम गिरि के शिखर को
लक्ष्य जब मैंने बनाया,
गर्व से उन्मत होकर
शीश मानव ने उठाया,

ध्येय पर पहुँचा, विजय के
नाद से संसार गूंजा,
खूब गूंजा किंतु कोई
गीत का सुन स्वर न पाया;

आज कण-कण से ध्वनित
झंकार होगी नूपुरों की,
खड्ग-जीवन-धार पर अब
है उठे पद काँप मेरे.

गीत कह इसको न, दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे!

(३) गान हो जब गूँजने को

गान हो जब गूँजने को
विश्व में, क्रंदन करूँ मैं,
हो गमकने को सुरभि जब
विश्च में, आहें भरूँ मैं,

विश्व बनने को सरस हो
जब, गिराऊँ अश्रु मैं तब
विश्व जीवन ज्योति जागे,
इसलिए जलकर मरूँ मैं!

बोल किस आवेश में तू
स्वर्ग से यह माँग बैठा ?–
पुण्य जब जग के उदय हों
तब उदय हों पाप मेरे !

गीत कह इसको न दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे !

(४) चुभ रहा था जो हदय में

चुभ रहा था जो हदय में
एक तीखा शूल बनकर,
विश्व के कर में पड़ा वह
कल्प तरु का फूल बनकर,

सीखता संसार अब है
ज्ञान का प्रिय पाठ जिससे,
प्राप्त वह मुझको हुई थी
एक भीषण भूल बनकर,

था जगत का और मेरा
यदि कभी संबंध तो यह-
विश्व को वरदान थे जो
थे वही अभिशाप मेरे!

गीत कह इसको न दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे !

(५) भावना के पुण्य अपनी

भावना के पुण्य अपनी
सूत्र-बाणी में पिरोकर
धर दिए मैंने खुशी से
विश्व के विस्तीर्ण पथ पर,

कौन है सिर पर चढ़ाता
कौन ठुकराता पगों से
कौन है करता उपेक्षा-
मुड़ कर कभी देखा न पल भर ।

थी बड़ी नाजुक धरोहर,
था बड़ा दायित्व मुझपर,
अब नहीं चिंता इन्हें
झुलसा न दें संताप मेरे ।

गीत कह इसको न दुनिया,
यह दुखों की माप मेरे !