भैरवी -सोहन लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Sohan Lal Dwivedi Part 2
महर्षि मालवीय
तुम्हें स्नेह की मूर्ति कहूँ
या नवजीवन की स्फूर्ति कहूँ,
या अपने निर्धन भारत की
निधि की अनुपम मूर्ति कहूँ ?
तुम्हें दया-अवतार कहूँ
या दुखियों की पतवार कहूँ,
नई सृष्टि रचनेवाले
या तुम्हें नया करतार कहूँ ?
तुम्हें कहूँ सच्चा – अनुरागी
या कि कहूँ सच्चा त्यागी ?
सर्व – विभव – संपन्न कहूँ
या कहूँ तप-निरत बैरागी ?
तुम्हें कहूँ मैं वयोवृद्ध
या बाँका तरुण जवान कहूँ?
तुम इतने महान, जी होता
मैं तुमको अनजान कहूँ !
कह सकता हूँ तो कहने दो
मैं तुमको श्रद्धेय कहूँ ।
निर्बल का बल कहूँ,
अनाथों का तुमको आश्रेय कहूँ।
श्रेय कहूँ, या प्रेय कहूँ
या मैं तुमको ध्रुव-ध्येय कहूँ ?
तुम इतने महान, जी होता
मैं तुमको अज्ञेय कहूँ !
वीरों का अभिमान कहूँ,
या शूरों का सम्मान कहूँ?
मृदु मुरली की तान कहूँ,
या रणभेरी का गान कहूँ?
शरणागत का त्राण कहूँ
मानव-जीवन-कल्याण कहूँ?
जी होता, सब कुछ कह तुमको
भक्तों का भगवान कहूँ !
जी होता है मातृ-भूमि का
तुम्हें अचल अनुराग कहूँ,
जी होता है, परम तपस्वी
का मैं तुमको त्याग कहूँ;
जी होता है प्राण फूंकने-
वाली तुमको आग कहूँ,
इस अभागिनी भारत-
जननी का तुमको सौभाग्य कहूँ !
विमल विश्वविद्यालय विस्तृत
क्या गाऊँ मैं गौरव-गान ?
ईंट ईंट के उर से पूछो
किसका है कितना बलिदान ?
हैं कालेज अनेकों निर्मित
फिर भी नित नूतन निर्माण ।
कौन गिन सकेगा कितने हैं
मन में छिपे हुए अरमान ?
तुम्हें आजकल नहीं और धुन
केवल आजादी की चाह ।
रह-रह कसक कसक उट्ठा
करती है उर में आह कराह !
गला दिया तुमने तन को
रो-रो आँसू के पानी में,
मातृभूमि की व्यथा हाय
सहते हम भरी जवानी में!
मिले तुम्हारी भक्ति देश को
हम जननी जय-गान करें,
मिले तुम्हारी शक्ति देश को
हम नित नव उत्थान करें;
मिले तुम्हारी आग देश को
आज़ादी आह्वान करें,
मिले तुम्हारा त्याग देश को
तन-मन-धन बलिदान करें।
जियो, देश के दलित अभागों के
ही नाते तुम सौ वर्ष !
जियो, वृद्ध माता के उर में
धैर्य बंधाते तुम सौ वर्ष !
जियो, पिता, पुत्रों को अपना
प्यार लुटाते तुम सौ वर्ष !
जियो, राष्ट्र की स्वतन्त्रता
के आते-आते तुम सौ वर्ष !
(मालवीय-हीरक जयन्ती’ के
अवसर पर लिखित)
आज़ादी के फूलों पर
सिंहासन पर नहीं वीर!
बलिवेदी पर मुसकाते चल !
ओ वीरों के नये पेशवा !
जीवन-जोति जगाते चल!
रक्तपात, विप्लव अशान्ति
औ’ कायरता बरकाते चल।
जननी की लोहे की कड़ियाँ
रह रहकर सरकाते चल !
कल लखनऊ गूंज उट्ठा था,
आज हरिपुरा हहर उठे,
बने अमिट इतिहास देश का
महाक्रान्ति की लहर उठे!
फूलों की मालाओं को
पद की ठोकर से दलते चल,
शूलों की मखमली सेज को
सुहला सुहला मलते चल ।
जननी के बंधन निहार
अपमान ज्वाल में जलते चल,
ठुकराये वीरों के उर के
रोषित रक्त उबलते चल !
पग-पग में हो सिंहगर्जना
दिशि डोलें, झंकार उठे,
जागें, सोयें इस युगवाले
यों तेरी हुंकार उठे !
है तेरा पांचाल प्रबल
बंगाल विमल विक्रमवाला,
महाराष्ट्र सौराष्ट्र हिन्द
अपने प्रण पर मिटनेवाला;
है बिहार गुणगौरववाला
उत्कल शक्तिसंघवाला
बलिवाला गुजरात, सुदृढ़
मद्रास, भक्ति वैभववाला;
फिर क्यों दुर्बल भुजा हमारी
कैसी कसी लोह-लड़ियाँ ?
अँगड़ाई भर ले स्वदेश
टूटे पल में कड़ियाँ-कड़ियाँ ।
आयें हम नंगे भिखमंगे
सब भूखों मरनेवाले ।
अपनी हड्डी-पसली खोले,
रक्तदान भरने वाले
खुरपी और कुदालीवाले ।
फड़ुआ औ’ फरसेवाले ।
महाकाल से रातदिवस
दो टुकड़ों पर लड़नेवाले!
आयें, काल-गाल के छोड़े
वज्रदेह, दृढ़ व्रतधारी ।
एक बार फिर बढ़ें युद्ध में
फिर हो रण की तैयारी।
फूंक शंख बाजे रणभेरी
जननी की जय जय बोले ।
चले करोड़ों की सेना
डगमग डगमग धरणी डोले !
जिधर चलेगा उधर चलेगी
अक्षौहिणी सैन्य मेरी ।
कौन रोक सकता वीरों को
सृष्टि बनी जिनकी चेरी?
बढ़ जायें चालिस करोड़ फिर
बलि के मधुमय झूलों पर,
मेरी मा भी चले विहँसती
आज़ादी के फूलों पर ।
हथकड़ियाँ !
आओ, आओ, हथकड़ियाँ
मेरे मणियों की लड़ियाँ !
मातृभूमि की सेवाओं की
स्वीकृति की जयमाल भली,
कृष्ण-तीर्थ ले चलनेवाली
पावन मंजुल मधुर गली;
जीवन की मधुमय घड़ियाँ
आओ, आओ, हथकड़ियाँ !
कर में बँधो, विजय-कंकण-सी
उर में आत्मशक्ति लाओ,
जन्मभूमि के लिए शलभ-सा
मर जाना, हाँ, सिखलायो;
स्वतन्त्रता की फुलझड़ियाँ !
आओ, आओ, हथकड़ियाँ !
मुक्ता
ज़ंजीरों से चले बाँधने
आज़ादी की चाह ।
घी से आग बुझाने की
सोची है सीधी राह !
हाथ-पाँव जकड़ो, जो चाहो
है अधिकार तुम्हारा ।
ज़ंजीरों से कैद नहीं
हो सकता हृदय हमारा!
नववर्ष
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
आओ, नूतन-निर्माण लिये,
इस महा जागरण के युग में
जाग्रत जीवन अभिमान लिये;
दीनों दुखियों का त्राण लिये
मानवता का कल्याण लिये,
स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष!
तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये।
संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति
की ज्वालाओं के गान लिये,
मेरे भारत के लिये नई
प्रेरणा नया उत्थान लिये;
मुर्दा शरीर में नये प्राण
प्राणों में नव अरमान लिये,
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!
युग-युग तक पिसते आये
कृषकों को जीवन-दान लिये,
कंकाल-मात्र रह गये शेष
मजदूरों का नव त्राण लिये;
श्रमिकों का नव संगठन लिये,
पददलितों का उत्थान लिये;
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत!
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये!
सत्ताधारी साम्राज्यवाद के
मद का चिर-अवसान लिये,
दुर्बल को अभयदान,
भूखे को रोटी का सामान लिये;
जीवन में नूतन क्रान्ति
क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये,
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
जब सारी दुनिया सोती थी
तब तुमने ही उसे जगाया,
दिव्य ज्ञान के दीप जलाकर
तुमने ही तम दूर भगाया;
तुम्हीं सो रहे, दुनिया जगती
यह कैसा मद है मतवाले ?
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले !
तुमने वेद उपनिषद रचकर
जग-जीवन का मर्म बताया,
ज्ञान शक्ति है, ज्ञान मुक्ति है
तुमने ही तो गान सुनाया;
अक्षर से अनभिज्ञ तुम्ही हो
पिये किस नशा के ये प्याले ?
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
गंगा यमुना के कूलों पर
सप्त सौध थे खड़े तुम्हारे,
सिंहासन था, स्वर्ण-छत्र था,
कौन ले गया हर वे सारे?
टूटी झोपड़ियों में अब तो
जीने के पड़ रहे कसाले!
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
भूल गये क्या राम-राज्य वह
जहाँ सभी को सुख था अपना,
वे धन-धान्य-पूर्ण गृह अपने
आज बना भोजन भी सपना;
कहाँ खो गये वे दिन अपने
किसने तोड़े घर के ताले ?
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
भूल गये वृन्दावन मथुरा
भूल गये क्या दिल्ली झाँसी ?
भूल गये उज्जैन अवन्ती
भूले सभी अयोध्या काशी?
यह विस्मृति की मदिरा तुमने
कब पी ली मेरे मदवाले !
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
भूल गये क्या कुरुक्षेत्र वह
जहाँ कृष्ण की गूंजी गीता,
जहाँ न्याय के लिए अचल हो
पांडु-पुत्र ने रण को जीता;
फिर कैसे तुम भीरु बने हो
तुमने रण-प्रण के व्रण पाले!
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
तुमने तो जापान चीन तक
उपनिवेश अपने फैलाये,
तुमने ही तो सिंधु पार जा
करुणा के संदेश सुनाये;
भूल गये कैसे गौतम को
जो थे जगतम के उजियाले ।
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले!
याद करो अपने गौरव को
थे तुम कौन, कौन हो अब तुम।
राजा से बन गये भिखारी,
फिर भी,मन में तुम्हें नहीं ग़म ?
पहचानो फिर से अपने को
मेरे भूखों मरनेवाले !
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले !
जागो हे पांचालनिवासी !
जागो हे गुर्जर मद्रासी !
जागो हिन्दू मुग़ल मरहठे
जागो मेरे भारतवासी !
जननी की ज़ंजीरें , बजतीं
जगा रहे कड़ियों के छाले!
सुना रहा हूँ तुम्हें भैरवी
जागो मेरे सोनेवाले !
बढ़े चलो, बढ़े चलो
(प्रयाण-गीत)
न हाथ एक शस्त्र हो,
न हाथ एक अस्त्र हो,
न अन्न वीर वस्त्र हो,
हटो नहीं, डरो नहीं,
बढ़े चलो, बढ़े चलो ।
रहे समक्ष हिम-शिखर,
तुम्हारा प्रण उठे निखर,
भले ही जाए जन बिखर,
रुको नहीं, झुको नहीं,
बढ़े चलो, बढ़े चलो ।
घटा घिरी अटूट हो,
अधर में कालकूट हो,
वही सुधा का घूंट हो,
जिये चलो, मरे चलो,
बढ़े चलो, बढ़े चलो ।
गगन उगलता आग हो,
छिड़ा मरण का राग हो,
लहू का अपने फाग हो,
अड़ो वहीं, गड़ो वहीं,
बढ़े चलो, बढ़े चलो ।
चलो नई मिसाल हो,
जलो नई मिसाल हो,
बढो़ नया कमाल हो,
झुको नही, रूको नही,
बढ़े चलो, बढ़े चलो ।
अशेष रक्त तोल दो,
स्वतंत्रता का मोल दो,
कड़ी युगों की खोल दो,
डरो नही, मरो नहीं,
बढ़े चलो, बढ़े चलो ।