बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part 2
खुलते ही जाते पथ तोरण
बाँचेगा चिट्ठी यह कौन कहाँ यह तो न जानता
लेकिन यह लिखनी ज़रूर है
लिखनी है, समय हुआ लिखने का,
उठ पड़ना होगा अब
छोड़ना नहीं बाक़ी कोई भी कामकाज
झुककर जल-छाया में मुख सबका देखना
मुख पर सबके पड़ती अपनी भी छाया
कितने जन कितने दिन घिरे हुए
बँधा हुआ अविरल विश्वास
आया सब इतना कैसे पास? जमा हुआ
अब सब लिख डालना
लिखना है मैं भी हूँ उत्सुक, मैं तुमसे मिलने को,
मिलाने को हाथ। जिसको यह लिखना है सम्भव है
वह भी हो चलता चला आता इतने दिनों से
खुलते ही जाते पथ तोरण सब स्वप्न में
सजे हुए खुलते ही जाते वे !
आकण्ठ भिक्षुक
आकण्ठ भिक्षुक, कहो कुछ कानों में
गृहस्थ के, उसकी स्थिरता सब
भंग करो, कार्निश से उसकी
झरा दो प्रपात,
बंशी बजाओ भेद तन मन उसका
गुनगुन नचाओ उसे पथ-पथ पर भीड़ जहाँ
देखो तब भी कितनी बची हुई
उसके शरीर से लगी हुई
मोह-सिक्त मूर्खता!
आलस्य
उस सबकी चिन्ता करो नहीं, उस सबका तो कोई अन्त नहीं
छोड़ो, आओ देखो बैठो यहाँ
देखो यह, किसी एक छोटी-सी चीज़ को
और बड़ा करते ही
लगने क्यों लगता है अशालीन
वहाँ दूर भय से वे चले गये दौड़ते माटी में
छाती में तुम्हारी भी होता क्यों कम्पन
आँखों में छाया आलस्य का भार यह
फिर भी क्यों होती यह चाहना
ठीक ठाक सब कुछ है ना !
मेघ जैसा मनुष्य
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है छू दें उसे तो झर पड़ेगा जल
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है जा बैठें पास में उसके तो छाया उतर आएगी
वह देगा या लेगा? आश्रय है वह एक, या चाहता आश्रय?
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
सम्भव है जाऊँ यदि पास में उसके किसी दिन तो
मैं भी बन जाऊँ एक मेघ।
भय
मोड़ पर सी आई टी रोड के हाथ फैला
सो रही है मेरी बेटी फुटपाथ पर
छाती के पास है कटोरा एनामेल का।
हुई है दिनभर आज वर्षा उसकी भिक्षा के ऊपर
समझ नहीं पाया इसीलिए कौन-सा था उसका रोना
और कौन-सा वर्षा-स्वर।
उस दिन खो गयी थी वह जब
गलियों के चक्र में
रो उठी थी
जैसे रो पड़ती हैं लड़कियाँ बेसहारा।
कहा था तब भय कैसा
मैं तो पीछे ही था तेरे।
पर होता है भय मुझे भी
जब वह जाती है सो
और फोड़कर मेघ को
उसके होंठों के कोने पर आ रहता है
एक टुकड़ा प्रकाश का।
भीड़
‘उतरना है ? उतर पड़िए हुज़ूर’
उतार कर चर्बी कुछ अपनी यह।’
‘आँखें नहीं हैं ? अन्धे हो क्या ?’
‘अरे, तिरछे हो जाओ, जरा छोटे और।’
भीड़ से घिरा हुआ
कितना और छोटा बनूँ मैं
हे ईश्वर !
क्या रहूँ नहीं अपने जितना भी
कहीं भी
खुले में, बाज़ार में, एकान्त में ?
शिल्पी
पड़ता आलोक मध्यरात्रि का मुख पर
रहता आधा अपने में ही घिरा।
तुम हो दिशा हारा अब भी जानते नहीं
तारा कौन कहाँ मरा बचा कहाँ कौन।
वामन सम चलते ही कभी-कभी
कभी-कभी अग्रदूत बनकर वसन्त के
कभी-कभी लगते हो अपने ही बहुत बड़े प्रेत से।
रंग और ध्वनि की निरंजन वह श्वास
उड़ जाती कुछ तो कुछ रह जाती पड़ी यहीं
निज को हो जानते? जानते हो कितना?
तुम हो बस चित्र वही मीडिया
बना देता जितना।
सिल्चर
किसने कहा यह मेरा नहीं? नहीं यह तुम्हारा?
यहाँ पाँव रखते ही छिन जाती छिन्नता।
तार मिल जाते सब मेरे तुम्हारे मुहूर्त में।
उठतीं सिहरतीं सब लहरें आनन्द की सिर से ले पाँव तक।
रहता है बहता स्रोत बराक नदी का
पर्वती छाया में जल भीगी आँखों में तुम्हारी
सर्पिल लावण्य वह जमा हुआ
बीच पत्थरों के,
नाचता जैसे कि संयुक्ताक्षर शक्ति के शब्दों में।
छाती में उग आता परिचित पुराना पेड़
विस्मय-सी शाखाएँ रहतीं झूल
इस देश उस देश
समय गढ़ देता शिल्प प्रकृतिमय
हो उठती शिल्पमय प्रकृति!
निग्रो बन्धु को चिट्ठी
रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, शब्द मेरा भी।
रिचर्ड रिचर्ड।
रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा शब्द नहीं।
रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, स्वप्न मेरा भी।
रिचर्ड, रिचर्ड।
कौन रिचर्ड? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा स्वप्न नहीं।
रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा दुःख मेरा भी।
रिचर्ड रिचर्ड।
रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा दुःख नहीं।
अब भी मैं वैसी वह
अब भी हैं वे कीर्तन? अब भी वह नाम।
है प्रवाह वैसा ही? अब भी वह राह?
नहीं, नहीं ज्यों की त्यों रहने की थी भी न बात।
पार किये पथ कितने, डैनों को खोल-मोड़,
एक और रूप लिए गाती वह जलवती अब भी तो।
तुमको है देखती? रखती क्या तुम्हें याद?
सोचा यह सब कहाँ, इस दुपहर आया जब
आज यहाँ,
मन में रखकर अपने इतना विश्वास
उठती यह देह जाग, आता हूँ
जब उसके पास।