बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part  7

बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part  7

 

भीड़

‘उतरना है ? उतर पड़िए हुज़ूर’
उतार कर चर्बी कुछ अपनी यह।’

‘आँखें नहीं हैं ? अन्धे हो क्या ?’
‘अरे, तिरछे हो जाओ, जरा छोटे और।’

भीड़ से घिरा हुआ
कितना और छोटा बनूँ मैं
हे ईश्वर !

क्या रहूँ नहीं अपने जितना भी
कहीं भी
खुले में, बाज़ार में, एकान्त में ?

 

शिल्पी

पड़ता आलोक मध्यरात्रि का मुख पर
रहता आधा अपने में ही घिरा।

तुम हो दिशा हारा अब भी जानते नहीं
तारा कौन कहाँ मरा बचा कहाँ कौन।

वामन सम चलते ही कभी-कभी
कभी-कभी अग्रदूत बनकर वसन्त के
कभी-कभी लगते हो अपने ही बहुत बड़े प्रेत से।

रंग और ध्वनि की निरंजन वह श्वास
उड़ जाती कुछ तो कुछ रह जाती पड़ी यहीं
निज को हो जानते? जानते हो कितना?

तुम हो बस चित्र वही मीडिया
बना देता जितना।

 

सिल्चर

किसने कहा यह मेरा नहीं? नहीं यह तुम्हारा?
यहाँ पाँव रखते ही छिन जाती छिन्नता।
तार मिल जाते सब मेरे तुम्हारे मुहूर्त में।
उठतीं सिहरतीं सब लहरें आनन्द की सिर से ले पाँव तक।

रहता है बहता स्रोत बराक नदी का
पर्वती छाया में जल भीगी आँखों में तुम्हारी
सर्पिल लावण्य वह जमा हुआ
बीच पत्थरों के,
नाचता जैसे कि संयुक्ताक्षर शक्ति के शब्दों में।

छाती में उग आता परिचित पुराना पेड़
विस्मय-सी शाखाएँ रहतीं झूल
इस देश उस देश
समय गढ़ देता शिल्प प्रकृतिमय
हो उठती शिल्पमय प्रकृति!

 

निग्रो बन्धु को चिट्ठी

रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, शब्द मेरा भी।
रिचर्ड रिचर्ड।
रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा शब्द नहीं।

रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा, स्वप्न मेरा भी।
रिचर्ड, रिचर्ड।
कौन रिचर्ड? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा स्वप्न नहीं।

रिचर्ड, नाम यह तुम्हारा दुःख मेरा भी।
रिचर्ड रिचर्ड।
रिचर्ड कौन? कोई नहीं? रिचर्ड मेरा दुःख नहीं।

 

संगिनी

हाथ पर रखना हाथ सहज नहीं
सारा जीवन देना साथ सहज नहीं
बात लगती यह सहज, जानता न लेकिन कौन
सहज बात होती उतनी सहज नहीं।

पाँवों के भीतर चक्कर मेरे, चक्कर है
उनके नीचे भी, कैसा नशा है यह, इसके तो सभी ऋणी।
झिलमिल-सी दुपहर में भी रहती ही है साथ
गंगा तीर वाली चंडालिनी।

वही सनातन अभ्रुहीना, आसहीना तुम ही तो हो
संगिनी मेरे हर समय की, है ना?
तुम मुझको सुख दोगी यह तो सहज नहीं
तुम मुझको दुःख दोगी यह भी सहज नहीं।

 

घर-2

जो चाहे आना उसको लाना
जो चाहे आना उसको लाना
जो चाहे आना उसको लाना
उसको बुलाना
घर के ही आसपास कितने तो लोग
जो जाए दूर बहुत दूर बहुत दूर
जाए घूमे-फिरे

उसको लाना घर लाना घर लाना
घर के ही पास में है घर के ही लोग
फिर क्यों जाते-जाते उल्टी दिशा में
उल्टी दिशा में
चाहो तुम दल-बाँध घर ही जलाना?

 

कबूतर

उस कबूतर ने पास आ मेरी ही कार्निश के
दिखाया मुझे निज को। इस तरह देखा था क्या कभी?
उसकी कोमलता को जानता। दुपहर को दूर चली जाती
स्वर ध्वनि उसकी पारकर पहाड़ देशकाल
जानी है।

वे सब नहीं हैं सुख रेखाएँ
छाती में उसकी श्वेत, कितने ही नख-क्षत
देख लिए मैंने आज,
जैसे ही उठाए हुए कितने ही मेघ भार
छोटी उस छाती में —
चाहता चुुम्बन वहाँ, मेघों को फोड़कर चाहता
होना वृष्टि, खोलकर डैनों को चाहता झर जाना
मर जाना अन्तिम बार गेरूआ माटी में —
छुऊँगा नहीं उस कबूतर को और कभी आगामी शीत में।

 

ग्रह

इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम लगता यह रहता।

मेघों में आलोक। पर्वत की गोद में
हाथों में लिये हुए बैठे हो हरी-हरी रेखाएँ
चाहूँ मैं मुझको ही घेरकर तुम्हारा भी
छाया पथ जाग उठे।

आँखों में सुश्रुवा का भाव जो तुम्हारी
वह आकर समा जाए मेरे शरीर में
बूँद एक बनकर।

फिर तुम बचे कहाँ !
तुम हो बस माटी में पत्थर में
घास के ऊपर सिहरता वृष्टि जल
इस ग्रह के कोई नहीं हो तुम
फिर भी यह ग्रह है तुम्हारा।

 

 

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