बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part 8
मेघ
ले आया मेघ घर वह हमारे लिए जाना-पहचाना।
आज इस काली भोर बेला में पहुँच सकता हूँ
उस देश ढेलकर दिनों का पहाड़। जाने कब
भाग कर कौन किसको पकड़ ले, किसने जाना।
एक विदा से दूसरी विदा के बीच
है सरलरेखा-सा वह पथ
और उसके आखिरी छोर पर खड़ा है दो
सौ वर्षों का बरगद पुराना।
कहता है वह इतना भय क्यों, आओ
इस जगह बैठो आकर —
आज मेघ से जाना प्रथम साहस का आना।
इसीलिए इतनी सूख गई हो
बहुत दिनों से तुमने बादलों से बातचीत नहीं की
इसीलिए तुम इतनी सूख गई हो
आओ मैं तुम्हारा मुँह पोंछ दूँ
सब लोग कला ढूँढ़ते हैं, रूप ढूँढ़ते हैं
हमें कला और रूप से कोई लेना-देना नहीं
आओ हम यहाँ बैठकर पल-दो-पल
फ़सल उगाने की बातें करते हैं
अब कैसी हो
बहुत दिन हुए मैंने तुम्हें छुआ नहीं
फिर भी जान गया हूँ
दरारों में जमा हो गए हैं नील भग्नावशेष
देखो ये बीज भिखारियों से भी अधम भिखारी हैं
इन्हें पानी चाहिए बारिश चाहिए
ओतप्रोत अन्धेरा चाहिए
तुमने भी चाहा कि ट्राम से लौट जाने से पहले
इस बार देर तक हो हमारी अन्तिम बात
ज़रूर, लेकिन किसे कहते हैं अन्तिम बात !
सिर्फ़ दृष्टि के मिल जाने पर
समूची देह गल कर झर जाती है मिट्टी पर
और भिखारी की कातरता भी
अनाज के दानों से फट पड़ना चाहती है
आज बहुत दिनों के बाद
हल्दी में डूबी इस शाम
आओ हम बादलों को छूते हुए
बैठें थोड़ी देर ….
मूल बँगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
हमको नहीं दी कोई आज भी
कटा हाथ, करता है आर्तनाद जंगल में
आर्तनाद करता है कटा हाथ — गारो पहाड़ में
सिन्धु की दिशाओं में करता है आर्तनाद कटा हाथ
कौन किसे समझाए और
लहरें समुद्र की, दिखातीं तुम्हें हड्डियाँ हज़ारों में
लहराते खेतों से उठ आतीं हड्डियाँ हज़ारों
गुम्बद और मन्दिर के शिखरों से, उग आतीं हड्डियाँ हज़ारों
आँखों तक आ जातीं, करतीं हैं आर्तनाद
सारे स्वर मिलकर फिर खो जाते जाने कहाँ
कण्ठहीन सारे स्वर
आर्तनाद करते हैं, खोजते हुए वे धड़,
शून्य थपथपाते हुए, खोजते हैं हृत्पिण्ड
पास आ अँगुलियों के
करती है आर्तनाद अँगुलियाँ
नाच देख ध्वंस का
पानी के भीतर या कि बर्फ़ीली चोटियों पर
कौन किसे समझाए और
करते हैं आर्तनाद अर्थहीन शब्द
और सुनते हो तुम भौंचक
हमको नहीं दी कोई आज भी
हमको नहीं दी कोई आज भी
हमको नहीं दी कोई मातृभाषा देश ने ।
अंजलि
घर जाय प्रिय जाय परिचित जाय
सबको मिलाकर आय वह मुहूर्त
जब तुम हो जाते अकेले
खड़े हो उस मुहूर्त-टीले पर और
जल है सब ओर, जल, जल धारा
प्लावन में घरहीन, पथहीन प्रियहीन
परिचितहीन
तुम ही अकेले
शून्य तले महाकाल के
दो छोटे हाथों से पकड़े हुए धूल भरा माथा
जानते नहीं कब दोगे किसको दोगे
जाकर दोगे कब कितनी दूर।
पत्थर
पत्थर, धरा है खुद मैंने यह छाती पर रोज़-रोज़
और अब उतार नहीं पाता ।
धिक् ! मेरी ग़लतियों, परे जाओ, उतरो
मैं फिर से शुरू करूँ,
फिर से खड़ा हूँ, जैसे खड़ा होता है आदमी ।
तैरते हुए दिन और हाथों के कोटर में लिपटी हैं रातें
क्योंकर उम्मीद है, समझ लेंगे दूसरे?
पूरी देह जुड़कर भी जगा सकी नहीं है कोई नवीनता ।
जन्महीन महाशून्य घेरे में,
बरसों तक पल-प्रतिपल
किसकी की पूजा?
अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो ।
चुपके-से कहता हूँ आज, तू उतर जा, उतर जा
पत्थर ! धरा था तुझे छाती पर,
मानकर देवता
अब मैं गया हूँ तुझे ठीक से पहचान !
जाम
भालू के पेट में भालू के तलुवे
स्थिर है काल जो असीम।
लटकाये गला है जि़राफ़
उछल-उछल पड़ती ज़ेब्रा क्रासिंग
हंस वे कई हज़ार
चाहते झपटना पंख दूसरों के
बालक भिखारी भरी दोपहर
डुगडुगी बजाता और गाता हुआ गाना।
रह-रहकर हिलता है माथा
चाहे हो तरुण चाहे पुराना।
कण्डक्टर कहता पुकार कर
पीछे से आगे हो जाना।
काठ
एक दिन उस चेहरे पर अपरिचय की आभा थी।
हरी महिमा थी, गुल्म थे, नामहीन उजास
आसन्न बीज के व्यूह में पड़ी हुई थी आदिमता
और जन्म की दाईं ओर थी हड्डियाँ, विषाक्त खोपड़ी !
शिराओं में आदिगन्त प्रवहमान डबरे थे
अकेले वशिष्ठ की ओर स्तुति बनी हुई थी आधीरात
शिखर पर गिर रहे थे नक्षत्र और
जड़ों में एक दिन मिट्टी के अपने तल पर थी
हज़ारों हाथों की तालियाँ.
पल्लवित टहनियाँ सीने की छाल से दूर
स्वाधीन अपरिचय में झुककर एक दिन
खोल देते थे फूल.
और आज तुम सामाजिक, भ्रष्ट, बीजहीन
काठ बनकर बैठे हो
अभिनन्दन के अन्धेरे में !
स्वप्न
अः, पृथिवी। अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
स्वप्न के भीतर है तुमुल पहाड़
परतों में खुली जा रही हैं उसकी पपड़ियाँ
खुली जा रही हें हरी पपड़ियाँ, भीतर और भीतर,
खोल रही हैं अपने को,
बीच में उनके उग रहे हैं धान खेत
जब आएगी लक्ष्मी
लक्ष्मी जब आएगी
तब हाथों में लिये कृपाण, पाइप गन,
कौन हैं वे जो चले आ रहे हैं लूटने फ़सल
अः पृथिवी, अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
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