बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part 6
डर
सी. आई. टी. रोड के मोड़ पर
कंकड़ों पर हाथ फैला
सोई हुई है मेरी बिटिया
सीने के पास रखा है तामचीनी का कटोरा।
आज दिन भर झरती रही बारिश उसकी भिक्षा पर
इसलिए मैं समझ नहीं पाया
पानी कौन-सा था, रुलाई कौन-सी!
उस दिन जब खो गई थी
बंद गली की भँवरों में
और रो उठी थी
जैसे रोती हैं अनाथ लड़कियाँ।
मैंने कहा था
क्यों डरती हो
मैं तो तेरे पीछे ही था।
लेकिन मुझे भी डर लगता है
जब सो जाती है वह
और उसके होंठों की कोरों पर
बादलों को चीरती
ढुलक आती है एक टुकड़ा रोशनी।
देह
देह के भीतर कुछ घट रहा है, डॉक्टर
मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि
उसका नाम किस तरह लिया जाता है
आइने के सामने बैठो
तो भारी हो उठती हैं आँखें
दर्द उठता है पेशियों के भीतर
भीतर से फूट रही है पीली रोशनी
लेकिन वह तो गोधूलि की आभा है
गोधूलि क्या ख़ून में दिखाई देती है?
ख़ून में दिखाई देती है गोधूलि?
तो क्या बेहतर है चले जाना?
देह के भीतर कुछ घट रहा है, डॉक्टर
मुझे उसका नाम नहीं पता।
हमारी अंतिम बातें
हमारी अंतिम बातें ढुलक रही हैं अंधकार की ओर
हमारी अंतिम बातें …
मरे हुए लोगों की आँखों से
भर गया है आधा आकाश
हमारे शब्दों के उस पार
आज रात ताड़ के झुरमुट के भीतर से
उठ आ रहे हैं युवकों के हृत्पिण्ड
हम जिनके नाम तक नहीं जानते
उनके ख़ून के लिए रास्तों पर रखे गए हैं कलश
हम लोग शान से उनके पास से गुज़र जाते हैं
और हमारी बातें गोल होकर जगमगाती हुई
ढुलक जाती हैं पिछले दिनों की ओर!
जन्मदिन
तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा सिवाय इस वचन के
कि कभी फिर हमारी मुलाक़ात होगी।
मुलाक़ात होगी तुलसीवट पर
मुलाक़ात होगी बाँस के पुल पर
सुपारीवन के किनारे मुलाक़ात होगी।
हम घूमेंगे शहर में डामर की टूटी सड़कों पर
गुनगुनी दोपहर या अविश्वासों की रातों में
लेकिन हमें घेरे रहेगी अदृश्य
उसी तुलसी अथवा पुल अथवा सुपारी की
कितनी ही सुंदर तन्वंगी हवाएँ।
हाथ उठाकर कहूँगा
यह देखो
सिर्फ़ दो-एक दर्द बचे रह गए हैं आज भी।
जब जाने का समय होगा
तो इस तरह देखूँगा कि भीग जाएँगी आँखें
हृदय को दुलराएगा उँगलियों का एक पंख
मानो हमारे सम्मुख कहीं कोई अपघात नहीं
और मृत्यु नहीं दिगंत तक।
तुम्हारे जन्मदिन पर और क्या दूँगा सिवाय इस वादे के
कि कल से हरेक दिन मेरा जन्मदिन होगा!
खुलने लगे हैं तोरण
यह चिट्ठी किसे लिखूँगा मैं अभी तक नहीं जानता
लेकिन लिखनी ही पड़ेगी
लिखना पड़ेगा कि अब समय हो आया है
समेट लेने का समय ….
अब उठना ही पड़ेगा
अब कोई काम नहीं कि जिसे अधूरा छोड़ सकें
नीचे झुककर पानी की छाया में देख लेने होंगे सभी चेहरे
सबके चेहरों पर है मेरी छाया
और मेरी देह में व्याप्त
कितने लोगों, कितने दिनों का अविरल विश्वास।
कहाँ से आया था इतना सब? जमा रह गया ….
इस बार लिखना ही पडे़गा।
लिखना ही पड़ेगा कि मैं भी हूँ
मैं भी हूँ तुम्हारे साथ हाथ मिलाने के लिए
और जिसे लिखूँगा उसने भी शायद
अब आना शुरू कर दिया है
स्वप्न में खुलने लगे हैं …
खुलने ही लगे हैं रास्तों पर बने हुए तोरण।
संकेत
मुझे याद है तुम्हारा संकेत
मैं ठीक पहुँच ही जाऊँगा समय रहते।
आइने के सामने खड़े होने के बहुत-से बहाने हैं
उन सब को हटाकर
पिछले साल के बाक़ी-बक़ाये में डूबे मन
इन सबको भूलकर
इसके उसके उनके साथ मुलाक़ात हो जाने
बातें कहने-सुनने
इन सबको पोंछकर
दिन-दोपहर की ओट में
पहुँच ही जाऊँगा आज तुम्हारे संकेत की शाम को
भग्न-हाट के थके व्यापारियों के पड़ोस से होकर
गाँव के सिवान के श्मशान में
जहाँ पीपल के झुक आए चेहरे की ओर
टकटकी लगाए देख रहा है
ठण्ड गूँगा जल …
वे जो वसन्तदिन
और एक
और एक दिन इसी तरह ढल जाता है पहाड़ के पीछे
और हम निःशब्द बैठे रहते हैं।
नीचे गाँव से उठ रहा है किसी हल्ले का आभास
हम एक-दूसरे का चेहरा देखते हैं।
अकड़ी हुई लताओं की मानिन्द लिपटे रहते हैं हम
और चेहरे पर आकर जम जाती हैं बर्फ़ की कणिकाएँ
इच्छा होती है सोचें कि हम
अतिकाय बर्फ़ीले-मानव हैं।
आग जलाकर बैठते हैं चारों ओर
कहते हैं, अहा, आओ गपशप की जाए।
वे जो वसन्तदिन थे…
वे जो वसन्तदिन थे…
और वसन्तदिन सचमुच हमारे हाथ छोड़
सूदूर जाने लगते हैं!