बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part 18
हमको नहीं दी कोई आज भी
कटा हाथ, करता है आर्तनाद जंगल में
आर्तनाद करता है कटा हाथ — गारो पहाड़ में
सिन्धु की दिशाओं में करता है आर्तनाद कटा हाथ
कौन किसे समझाए और
लहरें समुद्र की, दिखातीं तुम्हें हड्डियाँ हज़ारों में
लहराते खेतों से उठ आतीं हड्डियाँ हज़ारों
गुम्बद और मन्दिर के शिखरों से, उग आतीं हड्डियाँ हज़ारों
आँखों तक आ जातीं, करतीं हैं आर्तनाद
सारे स्वर मिलकर फिर खो जाते जाने कहाँ
कण्ठहीन सारे स्वर
आर्तनाद करते हैं, खोजते हुए वे धड़,
शून्य थपथपाते हुए, खोजते हैं हृत्पिण्ड
पास आ अँगुलियों के
करती है आर्तनाद अँगुलियाँ
नाच देख ध्वंस का
पानी के भीतर या कि बर्फ़ीली चोटियों पर
कौन किसे समझाए और
करते हैं आर्तनाद अर्थहीन शब्द
और सुनते हो तुम भौंचक
हमको नहीं दी कोई आज भी
हमको नहीं दी कोई आज भी
हमको नहीं दी कोई मातृभाषा देश ने ।
पत्थर
पत्थर, धरा है खुद मैंने यह छाती पर रोज़-रोज़
और अब उतार नहीं पाता ।
धिक् ! मेरी ग़लतियों, परे जाओ, उतरो
मैं फिर से शुरू करूँ,
फिर से खड़ा हूँ, जैसे खड़ा होता है आदमी ।
तैरते हुए दिन और हाथों के कोटर में लिपटी हैं रातें
क्योंकर उम्मीद है, समझ लेंगे दूसरे?
पूरी देह जुड़कर भी जगा सकी नहीं है कोई नवीनता ।
जन्महीन महाशून्य घेरे में,
बरसों तक पल-प्रतिपल
किसकी की पूजा?
अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो, अलग रहो ।
चुपके-से कहता हूँ आज, तू उतर जा, उतर जा
पत्थर ! धरा था तुझे छाती पर,
मानकर देवता
अब मैं गया हूँ तुझे ठीक से पहचान !
जाम
भालू के पेट में भालू के तलुवे
स्थिर है काल जो असीम।
लटकाये गला है जि़राफ़
उछल-उछल पड़ती ज़ेब्रा क्रासिंग
हंस वे कई हज़ार
चाहते झपटना पंख दूसरों के
बालक भिखारी भरी दोपहर
डुगडुगी बजाता और गाता हुआ गाना।
रह-रहकर हिलता है माथा
चाहे हो तरुण चाहे पुराना।
कण्डक्टर कहता पुकार कर
पीछे से आगे हो जाना।
स्वप्न
अः, पृथिवी। अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
स्वप्न के भीतर है तुमुल पहाड़
परतों में खुली जा रही हैं उसकी पपड़ियाँ
खुली जा रही हें हरी पपड़ियाँ, भीतर और भीतर,
खोल रही हैं अपने को,
बीच में उनके उग रहे हैं धान खेत
जब आएगी लक्ष्मी
लक्ष्मी जब आएगी
तब हाथों में लिये कृपाण, पाइप गन,
कौन हैं वे जो चले आ रहे हैं लूटने फ़सल
अः पृथिवी, अभी टूटी नहीं है मेरी नींद।
अंजलि
घर जाय प्रिय जाय परिचित जाय
सबको मिलाकर आय वह मुहूर्त
जब तुम हो जाते अकेले
खड़े हो उस मुहूर्त-टीले पर और
जल है सब ओर, जल, जल धारा
प्लावन में घरहीन, पथहीन प्रियहीन
परिचितहीन
तुम ही अकेले
शून्य तले महाकाल के
दो छोटे हाथों से पकड़े हुए धूल भरा माथा
जानते नहीं कब दोगे किसको दोगे
जाकर दोगे कब कितनी दूर।
मेघ
ले आया मेघ घर वह हमारे लिए जाना-पहचाना।
आज इस काली भोर बेला में पहुँच सकता हूँ
उस देश ढेलकर दिनों का पहाड़। जाने कब
भाग कर कौन किसको पकड़ ले, किसने जाना।
एक विदा से दूसरी विदा के बीच
है सरलरेखा-सा वह पथ
और उसके आखिरी छोर पर खड़ा है दो
सौ वर्षों का बरगद पुराना।
कहता है वह इतना भय क्यों, आओ
इस जगह बैठो आकर —
आज मेघ से जाना प्रथम साहस का आना।
बुद्धू
कोई हो जाये यदि बुद्धू अकस्मात, यह तो
वह जान नहीं पाएगा खुद से। जान यदि पाता यह
फिर तो वह कहलाता बुद्धिमान ही।
तो फिर तुम बुद्धू नहीं हो यह तुमने
कैसे है लिया जाना?
खुलते ही जाते पथ तोरण
बाँचेगा चिट्ठी यह कौन कहाँ यह तो न जानता
लेकिन यह लिखनी ज़रूर है
लिखनी है, समय हुआ लिखने का,
उठ पड़ना होगा अब
छोड़ना नहीं बाक़ी कोई भी कामकाज
झुककर जल-छाया में मुख सबका देखना
मुख पर सबके पड़ती अपनी भी छाया
कितने जन कितने दिन घिरे हुए
बँधा हुआ अविरल विश्वास
आया सब इतना कैसे पास? जमा हुआ
अब सब लिख डालना
लिखना है मैं भी हूँ उत्सुक, मैं तुमसे मिलने को,
मिलाने को हाथ। जिसको यह लिखना है सम्भव है
वह भी हो चलता चला आता इतने दिनों से
खुलते ही जाते पथ तोरण सब स्वप्न में
सजे हुए खुलते ही जाते वे !
आकण्ठ भिक्षुक
आकण्ठ भिक्षुक, कहो कुछ कानों में
गृहस्थ के, उसकी स्थिरता सब
भंग करो, कार्निश से उसकी
झरा दो प्रपात,
बंशी बजाओ भेद तन मन उसका
गुनगुन नचाओ उसे पथ-पथ पर भीड़ जहाँ
देखो तब भी कितनी बची हुई
उसके शरीर से लगी हुई
मोह-सिक्त मूर्खता!
आलस्य
उस सबकी चिन्ता करो नहीं, उस सबका तो कोई अन्त नहीं
छोड़ो, आओ देखो बैठो यहाँ
देखो यह, किसी एक छोटी-सी चीज़ को
और बड़ा करते ही
लगने क्यों लगता है अशालीन
वहाँ दूर भय से वे चले गये दौड़ते माटी में
छाती में तुम्हारी भी होता क्यों कम्पन
आँखों में छाया आलस्य का भार यह
फिर भी क्यों होती यह चाहना
ठीक ठाक सब कुछ है ना !
मेघ जैसा मनुष्य
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है छू दें उसे तो झर पड़ेगा जल
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है जा बैठें पास में उसके तो छाया उतर आएगी
वह देगा या लेगा? आश्रय है वह एक, या चाहता आश्रय?
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
सम्भव है जाऊँ यदि पास में उसके किसी दिन तो
मैं भी बन जाऊँ एक मेघ।
भय
मोड़ पर सी आई टी रोड के हाथ फैला
सो रही है मेरी बेटी फुटपाथ पर
छाती के पास है कटोरा एनामेल का।
हुई है दिनभर आज वर्षा उसकी भिक्षा के ऊपर
समझ नहीं पाया इसीलिए कौन-सा था उसका रोना
और कौन-सा वर्षा-स्वर।
उस दिन खो गयी थी वह जब
गलियों के चक्र में
रो उठी थी
जैसे रो पड़ती हैं लड़कियाँ बेसहारा।
कहा था तब भय कैसा
मैं तो पीछे ही था तेरे।
पर होता है भय मुझे भी
जब वह जाती है सो
और फोड़कर मेघ को
उसके होंठों के कोने पर आ रहता है
एक टुकड़ा प्रकाश का।
भीड़
‘उतरना है ? उतर पड़िए हुज़ूर’
उतार कर चर्बी कुछ अपनी यह।’
‘आँखें नहीं हैं ? अन्धे हो क्या ?’
‘अरे, तिरछे हो जाओ, जरा छोटे और।’
भीड़ से घिरा हुआ
कितना और छोटा बनूँ मैं
हे ईश्वर !
क्या रहूँ नहीं अपने जितना भी
कहीं भी
खुले में, बाज़ार में, एकान्त में ?
शिल्पी
पड़ता आलोक मध्यरात्रि का मुख पर
रहता आधा अपने में ही घिरा।
तुम हो दिशा हारा अब भी जानते नहीं
तारा कौन कहाँ मरा बचा कहाँ कौन।
वामन सम चलते ही कभी-कभी
कभी-कभी अग्रदूत बनकर वसन्त के
कभी-कभी लगते हो अपने ही बहुत बड़े प्रेत से।
रंग और ध्वनि की निरंजन वह श्वास
उड़ जाती कुछ तो कुछ रह जाती पड़ी यहीं
निज को हो जानते? जानते हो कितना?
तुम हो बस चित्र वही मीडिया
बना देता जितना।