प्रथम सर्ग-जय हनुमान– श्यामनारायण पाण्डेय -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Narayan Pandey Part 

प्रथम सर्ग-जय हनुमान– श्यामनारायण पाण्डेय -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shyam Narayan Pandey Part

 

राम रमापति के चरणों की
रज का शिर पर तिलक लगा
श्रद्धा से भरकर पर डर डर
राम–भक्त को रहा जगा

उठो केसरीनन्दन तुम
अपने प्रबन्ध में भाव भरो
लिखूँ तुम्हारी कार्य दक्षता
मुझमें ऐसा चाव भरो

लिया तुम्हारा नाम कहीं तो
भूत-प्रेत का डर क्‍या है
इष्ट भक्त तो एक वस्तु है
दोनों में अन्तर क्या है

तुमने रामायण लिखवायी
तुलसी को सम्मान दिया
कवि के मन-मन्दिर में बसकर
राम-भक्ति का दान दिया

उसी कृपा की भीख माँगता
मत मुझको बहलायो तुम
एक बार वर्णित चरित्र को
फिर मुझसे दुहरायो तुम

इष्टदेव, कुलदेव, ग्राम के
देव, नमन स्वीकार करो
स्थान देव, ओ वास्तुदेव,
पैरों पर हूँ कुछ प्यार करो

पाठक, पढ़ो कपीश कहानी
पाप-ताप हरने वाली
अन्तर में कर्त्तव्य-शीलता
भाव-भक्ति भरने वाली

जाम्बवन्त मारुति से बोले
क्‍यों चुप हो कुछ बोलो तो
सोच रहे हो क्‍या मन ही मन
हिलो-हिलो कुछ डोलो तो

तुम तो संस्कृत के अधिकारी
प्रभु-रहस्य के ज्ञाता हो,
सर्व शास्त्र-निष्णात साथ ही
मन्‍त्रों के निर्माता हो

वेद्‌-विहित व्याकरण-शुद्ध
रस–भरी तुम्हारी वाणी है
ह्रस्व–दीर्घ-झंकृत उच्चारण
कथन-शक्ति कल्याणी है

गरुड़ू-पंख में जो बल है
वह बल है पुष्ट भुजायों में
पवन देव के सदृश वेग है
कठिन तुम्हारे पाँवों में

यह समुद्र क्या शैशव में ही
सूर्य-लोक हो आये हो
इन्द्र-वज्र सह लिया मगर
यह अपनी हनु खो आये हो

वामन-सदृश त्रिलोक नाप
सकते हो यदि तुम चाहो तो
धरा उठाकर उड़ सकते हो
अपनी शक्ति जगायो तो

उठो गरजते सिन्धु लाँघ कर
हम सब का उद्धार करो
जगदम्बा का पता लगाकर
रघुकुल का उपकार करो

स्तूयमान हनुमान गरजकर
उठे रोम भरभरा उठे
कपि-गर्जन के भीम नाद से
गिरि-कानन हरहरा उठे

किया गात विस्तार सिंह सम
बारंबार जँभाई ली
तैर गया लोहू आँखों में
गरज-गरज अँगड़ाई ली

झुके बड़े बूढ़ों के सम्मुख
पंचदेव को कर जोड़ा
पिता वायु को नमस्कार कर
लंका का अन्तर जोड़ा

एक बार हुंकार किया फिर
वातावरण कराह उठा
वीर वानर का समूह मिल
वाह-वाह कर वाह उठा

सिंह–सदृश उछल महेन्द्र गिरि
पर धमके बजरंगबली
अचल हिला तो फूल विटप के
बिखर गये गिरि गली-गली

अद्रिकम्प से टूट टूटकर
बड़े बड़े पाषाण गिरे
पिसे बापुरे वन्‍य जीव
मानो लक्ष्मण के बाण गिरे

दंश मारने लगे विषैले
विषधर गिरि–चट्टानों को
चटक चटक चट्टानें टूटीं
तो भय हुआ महानों को

पवन–तनय पर्वत पर पिंगल
बलीवर्द सम खड़े हुए
तेजस्वी तन-रूप देखकर
वानर हर्षित बड़े हुए

हनुमान किलकिला गरजकर
चकित वानरों से बोले
एक एक हुंकार घोष पर
पर्वत के कण कण डोले

जाम्बवन्त ओ अंगदादि सब
स्वस्थ–चित्त हो जाओ अब
वैदेही-पद देख तुरत
लौटूंगा मंगल गाओ अब

वीर वानरो, करो प्रतीक्षा
राम–बाण बन जाऊँगा
जगदम्बा का समाचार
आनन-फानन में लाऊँगा

अग्निशिखा बलवान वायु की
जहाँ प्रगति रुक जाती है
मेरी प्रगति वहाँ भी है
बाधा मुझसे झुक जाती है

कौन जलधि तैरे मैं तो
नभ के पथ से ही जाऊँगा
गति उड़ान से नभ–चारी
जीवों को भी दहलाऊँगा

इन्द्र-हाथ से सुधा छीन कर
अमी कहो तो लाऊँ मैं
देख रहा हूँ जगदम्बा को
बोलो तो उड़ जाऊँ मैं

सब की सम्मति हो तो मैं
लंका को यहीं उठा लाऊँ
और नहीं तो आज्ञा दें
लंका में आग लगा आऊँ

उड़ा दृश्य देखो दुनिया का
यह आश्चर्य निराला है
सूर्य–रश्मि की तरह चला, मन
आतुर है मतवाला है

यह कह कर गरजे, नागिन सी
पूंछ उछाली अम्बर में
भाववेग से तन झकझोरा
उठीं तरंगें अन्तर में

लगे गरजने बारबार, गिरि
हिला, निवासी काँप उठे
एक साथ ही मृत्यु आ गई
सबकी, सब जन भाँप उठे

मारुति ने अब परिघ भुजाओं
को पर्वत पर अड़ा दिया
अपने बलशाली पावों को
अचल-शीश पर गड़ा दिया

तन समेट कर बड़े वेग से
उछले सबको दहलाते
हनुमान सच गरुड़ बन गये
उड़े गगन में लहराते

उनके साथ उड़े तरु गिरि के
तीव्र वेग को सह न सके
चले पाहुने को पहुँचाने
पर्वत पर थिर रह न सके

फूल गिरे सागर में तो वह
निशि–नभ सा छविमान हुआ
क्षणिक सिन्धु को फूलों के
गहनों का भी अभिमान हुआ

नील गगन में इन्द्र-ध्वजा सी
लम्बी पूँछ फहरती थी
अगल बगल से हवा निकल कर
बादल सदृश गरजती थी

कठिन वेग से खींच बादलों
को नभ में छितराते थे
बड़ी-बड़ी लहरें उठतीं
हनुमान गरजते जाते थे

छाया जल पर वायु वेग से
धावित नौका सी चलती
जिधर-जिधर छाया चलती थी
उधर-उधर हलचल मचती

हनुमान – का श्रम हरने
मैनाक जलधि-ऊपर आया
छूकर उसे और ऊपर उड़ने
में कौशल दिखलाया

राम-कार्य में लगे भक्त को
था असह्य रुकना क्षण भर
महावीर की भक्ति देखकर
नभ से फूल झरे झर-झर

चली देव-प्रेरित सुरसा फिर
राह रोक कर खड़ी हुई
बोली, खाद्य-प्रतीक्षा में हूं
यहीं युगों से अड़ी हुई

भूख लगी है तुमको खाकर
अपनी भूख बुझाऊँगी
मधुर खाद्य बनकर आये तुम
ठहरो भोग लगाऊँगी

हनुमान सुरसा से बोले
माँ, छण करो प्रतीक्षा तुम
राम-कार्य मैं कर आऊँ
दो अल्प समय की भिक्षा तुम

राम लोक-प्रिय साधु यशस्वी
नामी महिमावानों में
साधु-कार्य में बाधक को
निन्‍दा होती विद्वानों में

न न न न मैं कुछ नहीं मानती
कह उसने मुँह फैलाया
कामरूप का ध्यान कौतुकी
मारुति को भी हो आया

जैसे जैसे बदन बढ़ा वैसे
वैसे कपि देह बढ़ी
हनुमान के अंग-अंग पर
एक भयंकर ज्योति चढ़ी

नरक-द्वार की तरह भयावह
जब सुरसा का बदन हुआ
एक होठ पानी में पैठा
और दूसरा गगन छुआ

तब लघु-तन बन गये पवनसुत
मन में कुछ कलबल आये
मुँह में घुसकर कर्णरन्ध्र से
बाहर तुरत निकल आये

और प्रणाम किया सुरसा को
वह भी बहुत प्रसन्न हुई
आशीर्वाद दिया लेकिन वह
बहुत-बहुत अवसन्न हुई

पुनः चले आकाश तैरते
विद्युत्गति से कपि नाहर
विस्मित देव उड़ान देखते
निकल-निकल घर से बाहर

अभी न दूर गये थे तब तक
पड़ी सिंहिका मतवाली
नभचारी जीवों की छाया
झपट पकड़ लेने वाली

उसने उड़ते मारुति की भी
परछाईं को पकड़ लिया
खा जाने को मुँह बाया
दोनों हाथों से जकड़ लिया

उल्टी प्रखर हवा बहने से
नौका की जो गति होती
महुअर के मोहक निनाद से
अहि की जो दुर्गति होती

वही हुई गति हनुमान की
एक हाथ भी बढ़ न सके
लौह श्रृंखला में जकड़े
मदमस्त करी सम कढ़ न सके

तभी गरजती हुई सिंहिका
सागर के ऊपर उछली
देख राक्षसी का दुःसाहस
क्रुद्ध हुए बजरंगबली

मुँह में घुसकर तीक्ष्ण नखों से
पेट कररकर चीर दिया
और अगम सागर के जल में
उसका फेंक शरीर दिया

बिना रुके रघुनाथकार्य के
लिये पुनः ऊपर उछले
नभ को अपनी ओर खींचते
पक्षिराज की तरह चले

फूलों की वर्षा की, सब
देवों ने आशीर्वाद दिया
मार सिंहिका को तुमने
हम सब के हित का कार्य किया

होगा सिद्ध अभीष्ट तुम्हारा
जाओ पथ मंगलमय हो
रावण-पालित लंका में
हुँकार तुम्हारा निर्भय हो

विघ्न ठेलते धमक गये
हनुमान लक्ष्य की छाती पर
लघु तन किया कि भेद प्रगट हो
कहीं न सुर-नर-घाती पर

लंका के रक्षक पर्वत के
एक शिखर के वृक्ष तले
भले सोचकर विधि प्रवेश की
सावधान हनुमान चले

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