पहली बार-गुरभजन गिल-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gurbhajan Gill
माथे की त्योरियाँ
हल की गहरी रेखा बनी हैं।
हलवाहकों ने
दुश्मन की निशानदेही करके
दर्दों की गुड़ाई जुताई की है।
इस धरती ने बहुत कुछ देखा है।
नहरों के बंद मोघों को खोला है बाबाओं ने।
हरसा छीना आज भी ललकारता है
मालवे में कुलकों को
भगाया था सुतंतर के साथी काश्तकारों ने किशनगढ़ से।
दाब लिया था गाँव गाँव मंडी मंडी।
सफे़दपोशों में सुर्खपोशों ने मचाई थी भगदड़।
इतिहास ने देखा।
जब्रशाही से टकराते
ख़ुश हैसियती टैक्स को ललकारते
आज भी स्मृतियों में जागते।
चाचा चोर भतीजा डाकू
मंडलियों में गाते जांबाज़।
अन्न राशि की रखवाली जानते हैं
कृषि औजार बरतने वाले
सरकार से लड़े हर बार।
पर यह देखा पहली बार
अलग तरह का सूरज
नई किरणों समेत उगा।
दुश्मन की निशानदेही की है।
कापार्रेटे घरानों के
कंपनीशाहों को रावण के साथ जलाया है।
दशहरे के अर्थ बदले हैं।
वक्त की छाती पर दर्दमंदों की आहों ने
नई अमिट इबारत लिखी है।
हमें नचाने वाले ख़ुद नाचे हैं,
हकीकतों के द्वार
बेशर्म हँसी में घिर गए हैं
तीन मुँहे शेर छिपते फिरते हैं।
तख़्तों वाले तख़्त ललकारते।
कभी कभी इस तरह होता है,
कि बिल्ला स्वयं गर्म तवे पर पैर धरके तड़पे।
अपने आप ही फँस जाए दहकते तंदूर में।
दुधहँड़ में दूध पीता कुत्ता गर्दन फँसा बैठे।
चोर नकब में ही पकड़ा जाए।
बीहड़ मार-कुटाई खाता फँसा फँसा बेशर्मी में
कुछ भी कहने योग्य न रहे।
पहली बार हुआ है
कि खेत आगे आगे चल रहे हैं।
कुर्सियाँ पीछे पीछे चलतीं
बिन बुलाए बारातियों की तरह।
मनुस्मृति के बाद
नए अछूत घोषित हुए हैं नेता गण।
वक्तनामे की अनलिखी किताब में
पहली बार
तुंबों ढड्डों सारंगियों अलगोज़ों ने
पीड़ा गुँथी तर्ज़ें निकाली हैं।
वक्त ने लम्बे सुरों को शीशा दिखाया है।
मुक्के ललकार बने हैं
चीखें कूकने में बदली हैं।
क्रंदन को आवाज़ मिली है
मुक्ति को ठिकाने का ज्ञान हुआ है।
भीतर की दृढ़ता बाहर आई है।
साज़िशों, षडयंत्रों, चालों, कुचालों के ख़िलाफ़
कन्याकुमारी से काश्मीर तक
भारत एक हुआ है।
लूटतंत्र मुर्दाबाद कहते।
किताबों से बहुत पहले वक्त बोला है।
नागपुरी संतरों का रंग
फक्क हुआ है लोक दरबार में।
मंडियों में दाने तड़पे हैं
आढ़तियों ने आह भरी है।
पल्लेदारों ने कमर कसी है।
सड़कें, रेलवे ट्रैक ने
दादे-पौत्रे, दादियाँ-पौत्रियाँ
जिंदाबाद की योन में पड़ी देखी है।
पहली बार बंद दरवाज़ों के भीतर
लगे शीशों ने बताया है
अंदर का किरदार।
कि कुर्सियों ने नचाया नहीं नाच
झाँझरें बाँध ख़ुद नाची हैं।
काठ की पुतली को नचाते तंतु के
पीछे के हाथ नंगे हुए हैं,
धान की फसल की कटाई में
आग लगी है।
गेहूँ उगने से इनकारी है
सहम गया है ट्युबबेल का पानी।
खूँटे से बँधी भैंस गायें
दूध देने से हट गई हैं।
दूध पीती बिल्ली थैली से बाहर आई है।
हलवाहों चरवाहों ने अर्थशास्त्र पढ़े हैं।
बिना स्कूल कालेज की कक्षाओं में गए
फर फर अर्थाते हैं सत्ता का व्याकरण।
फ़िकरे जुड़ें न जुड़ें अर्थ कतार दर कतार खड़े हैं।
पहली बार अर्थों ने शब्दों को
कटघरे में खड़ा कर लाजवाब किया है।
अंबर के तारों की छाँव में
मुद्दत बाद देखे हैं बेटे बेटियाँ
लंगर पकाते परोसते।
सूरज और चंद्रमा ने एक ही तरह से
बेरहम तारामंडल नज़दीक से देखा है।
कंबल की ठंडवाले महीने में आग दहकती है।
पसीने से भीगा है पूरा तन बदन।
झंडे के आगे झंडियाँ मुजरिम बनी हैं।
चौकीदारों को सवालों ने बींधा है
बिना तीर तलवार।
गोदी बैठे लाडले अक्षर
बेयकीनी हुए हैं चौरस्तों पर।
सवालों का कद बढ़ गया जवाबों से।
पहली बार तथ्य बोले हैं बेबाक होकर
धरतीपुत्रों ने सवा सौ साल बाद पगड़ी सँभाली है
जोत-खेत की सलामती के लिए।