पहला कदम्ब फूल-स्मृति सत्ता भविष्यत् -विष्णु दे -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vishnu Dey
तुम्हें अपने जीवन की सन्ध्या में
श्रावण मास का पहला कदम्ब फूल दे सकूँगा
इस की कोई आशा नहीं थी, फिर भी रंग की बहार छा गयी है,
फिर भी अपराल के आकाश में घटा घिरी है।
सुनने में आया है कि शायद आजकल
हमारे बंगाल की वर्षा फरक्का या ऐसे ही किसी
सुदूर नाम की ओट में बिला गयी है,
सुनने में आया है कि आजकल शिवजी की जटा छिन्न हो गयी है,
बस महामारी अनाहार अनाचार ही छाये हैं;
कपिल मुनि की गुफा का अन्धकार
हमारे इस राढ़ देश पर फिर छा गया है,
सुनने में आया है कि गंगा में करोड़ों आँखों के आँसू हैं,
आँखें जिन की मन ही मन गिनती करना भी दुश्वार है।
तभी तो आज शायद बरसों की परिचित वर्षा
सुनने में आया है दिल्ली चली गयी है !
शिव-दुर्गा के मिलन के बिना घटा कैसी ?
आज कल तो किसी भी मामले में आशा करना कठिन है।
कोई आशा नहीं थी, दिन भर कुण्ठित रहता था।
फिर भी अपराल्लु के आकाश में घटा घिर आयी,
लगभग वर्षा ही की तरह, चाहे वैशाख का आंधी-तूफान हो,
या शरद्, आकाश में रंगों की बहार है
मानो कैलास छोड़ कर आयी उमा के नेत्र हों।
वर्षा उतरी, कलकत्ते ने मुक्ति की सांस ली,
और घाट-मैदानों में, नदियों और वनों में फैल गयी।
नव जीवन के ऐक्य से सब एकाकार हो गया,
गाँवों और शहरों का रेगिस्तानी शाप मानो मिट गया,
दुर्गम पर्वत दुस्तर मरुस्थल लाँघ कर मानो नटराज ने प्रेम और सख्य से
नीलम-धवल बाहपाश में गौरी के वर अंगों को समेट लिया।
इस दृश्य की कहीं कोई बराबरी नहीं ।
इस नृत्य के विगलित सुख में डूब कर
बेला और जुही के फूल सजल हवा में झर रहे हैं-
लगता है मानो सारी भूलें धुल गयी हों,
बस आँगन का कदम्ब आप ही आप सिहर रहा है।
पहला कदम्ब फूल मैं तुम्हीं को दूंगा ।।
१२।७।५८