न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई-शामे-श्हरे-यारां -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
न अब रकीब न नासेह न ग़मगुसार कोई
तुम आशना थे तो थीं आशनाईयां क्या-क्या
जुदा थे हम तो मुयस्सर थीं कुरबतें कितनी
बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाईयां क्या-क्या
पहुंच के दर पर तिरे कितने मो’तबर ठहरे
अगरचे रह में हुईं जगहंसाईयां क्या-क्या
हम-ऐसे सादा-दिलों की नियाज़मन्दी से
बुतों ने की हैं जहां में बुराईयां क्या-क्या
सितम पे ख़ुश कभी लुतफ़ो-करम से रंजीदा
सिखाईं तुमने हमें कजअदाईयां क्या-क्या