निशा निमन्त्रण -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 4
मुझ से चाँद कहा करता है
मुझ से चाँद कहा करता है–
चोट कड़ी है काल प्रबल की,
उसकी मुस्कानों से हल्की,
राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है|
मुझ से चाँद कहा करता है–
तू तो है लघु मानव केवल,
पृथ्वी-तल का वासी निर्बल,
तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है–
तू अपने दुख में चिल्लाता,
आँखो देखी बात बताता,
तेरे दुख से कहीं कठिन दुख यह जग मौन सहा करता है।
मुझ से चाँद कहा करता है–
विश्व सारा सो रहा है
विश्व सारा सो रहा है!
हैं विचरते स्वप्न सुंदर,
किंतु इसका संग तजकर,
अगम नभ की शून्यता का कौन साथी हो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
अवनि पर सर, सरित, निर्झर,
किन्तु इनसे दूर जाकर,
कौन अपने घाव अंबर की नदी में धो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
न्याय न्यायाधीश भूपर,
पास, पर, इनके न जाकर,
कौन तारों की सभा में दुःख अपना रो रहा है?
विश्व सारा सो रहा है!
कोई रोता दूर कहीं पर
कोई रोता दूर कहीं पर!
इन काली घड़ियों के अंदर,
यत्न बचाने के निष्फल कर,
काल प्रबल ने किसके जीवन का प्यारा अवलम्ब लिया हर?
कोई रोता दूर कहीं पर!
ऐसी ही थी रात घनेरी,
जब सुख की, सुखमा की ढेरी
मेरी लूट नियति ने ली थी, करके मेरा तन मन जर्जर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
मित्र पड़ोसी क्रंदन सुनकर,
आकर अपने घर से सत्वर,
क्या न इसे समझाते होंगे चार, दुखी का जीवन कहकर!
कोई रोता दूर कहीं पर!
साथी, सो न, कर कुछ बात
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद ‘मरमर’,
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
तूने क्या सपना देखा है
तूने क्या सपना देखा है?
पलक रोम पर बूँदें सुख की,
हँसती सी मुद्रा कुछ मुख की,
सोते में क्या तूने अपना बिगड़ा भाग्य बना देखा है।
तूने क्या सपना देखा है?
नभ में कर क्यों फैलाता है?
किसको भुज में भर लाता है?
प्रथम बार सपने में तूने क्या कोई अपना देखा है?
तूने क्या सपना देखा है?
मृगजल से ही ताप मिटा ले
सपनों में ही कुछ रस पा ले
मैंने तो तन-मन का सपनों में भी बस तपना देखा है!
तूने क्या सपना देखा है?
आज घिरे हैं बादल, साथी
आज घिरे हैं बादल, साथी!
भरा हृदय नभ विगलित होकर
आज बिखर जाएगा भूपर,
चार नयन भी साथ गगन के आज पड़ेंगे ढल-ढल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
आँसू का बल हमें कभी था
आँचल गीला किया जभी था
जग जीवन की सब सीमाएँ ढहीं-बहीं थीं गल-गल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
अब आँसू उर ज्वाल बुझाते
तो भी हम कुछ सुख पा जाते!
इन जल की बूँदों से उर के घाव उठेंगे जल-जल, साथी!
आज घिरे हैं बादल, साथी!
देख, रात है काली कितनी
देख, रात है काली कितनी!
आज सितारे भी हैं सोए,
बादल की चादर में खोए,
एक बार भी नहीं उठाती घूँघट घन-अवगुंठन वाली!
देख, रात है काली कितनी!
आज बुझी है अंतर्ज्वाला,
जिससे हमने खोज निकाला
था पथ अपना अधिक तिमिर में और चली थे चाल निराली!
देख, रात है काली कितनी!
क्या उन्मत्त समीरण आता,
मानव कर का दीप बुझाता,
क्या जुगुनूँ जल-जल करता है तरु के नीड़ों की रखवाली!
देख, रात है काली कितनी!
यह पपीहे की रटन है
यह पपीहे की रटन है!
बादलों की घिर घटाएँ,
भूमि की लेतीं बलाएँ,
खोल दिल देतीं दुआएँ- देख किस उर में जलन है!
यह पपीहे की रटन है!
जो बहा दे, नीर आया,
आग का फिर तीर आया,
वज्र भी बेपीर आया- कब रुका इसका वचन है!
यह पपीहे की रटन है!
यह न पानी से बुझेगी,
यह न पत्थर से दबेगी,
यह न शोलों से डरेगी, यह वियोगी की लगन है!
यह पपीहे की रटन है!
है पावस की रात अँधेरी
है पावस की रात अँधेरी!
विद्युति की है द्युति अम्बर में,
जुगुनूँ की है ज्योति अधर में,
नभ-मंड्ल की सकल दिशाएँ तम की चादर ने हैं घेरी!
है पावस की रात अँधेरी!
मैंने अपने हास चपल से,
होड़ कभी ली थी बादल से!
किंतु गगन का गर्जन सुनकर आज धड़कती छाती मेरी!
है पावस की रात अँधेरी
है सहसा जिह्वा पर आई,
’घन घमंड’ वाली चौपाई,
जहाँ देव भी काँप उठे थे, क्यों लज्जित मानवता मेरी!
है पावस की रात अँधेरी!