नाराज़ -राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 8
किसने दस्तक दी है दिल पर कौन है
किसने दस्तक दी है दिल पर कौन है
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है
रौशनी ही रौशनी है हर तरफ़
मेरी आँखों में मुन्नवर कौन है
आसमां झुक-झुक के करता है सवाल
आपके कद के बराबर कौन है
हम रखेंगें अपने अश्कों का हिसाब
पूछने वाला समंदर कौन है
सारी दुनिया हैरती है किस लिए
दूर तक मंज़र ब मंज़र कौन है
मुझसे मिलने ही नहीं देता मुझे
क्या पता ये मेरे अन्दर कौन है
कैसा नारा कैसा क़ौल अल्लाह बोल
कैसा नारा कैसा क़ौल अल्लाह बोल
अभी बदलता है माहौल अल्लाह बोल
कैसे साथी कैसे यार, सब मक्कार
सबकी नीयत डांवाडोल अल्लाह बोल
जैसा गाह, वैसा माल दे कर ताल
काग़ज़ में अंगारे तोल अल्लाह बोल
इंसानों से इंसानों तक एक सदा
क्या तातारी क्या मंगोल अल्लाह बोल
सांसो पर लिख रब का नाम सुबह शम
यही वज़ीफ़ा है अनमोल अल्लाह बोल
सच्चाई का लेकर जाप धरती नाप
दिल्ली हो या आसनसोल अल्लाह बोल
दल्लालों से नाता तोड़, सबको छोड़
भेज कमीनों पर लाहौल अल्लाह बोल
हर चेहरे के सामने रख दे आईना
नोच ले हर चेहरे का खोल अल्लाह बोल
शाख-ए-सहर पे महके फूल अज़ानों के
फ़ेंक रज़ाई आंखें खोल अल्लाह बोल
मसअला प्यास का यूं हल हो जाये
मसअला प्यास का यूं हल हो जाये
जितना अमृत है हलाहल हो जाये
शहर-ए-दिल में है अजब सन्नाटा
तेरी याद आये तो हलचल हो जाये
ज़िन्दगी एक अधूरी तस्वीर
मौत आए तो मुकम्मल हो जाये
और एक मोर कहीं जंगल में
नाचते-नाचते पागल हो जाये
थोड़ी रौनक है हमारे दम से
वरना ये शहर तो जंगल हो जाये
फिर ख़ुदा चाहे तो आंखें ले ले
बस मेरा ख़्वाब मुकम्मल हो जाये
मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा
मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा
ये पुल-सिरात अगर है तो चल के देखूँगा
सवाल ये है कि रफ़्तार किस की कितनी है
मैं आफ़्ताब से आगे निकल के देखूँगा
गुजारिशों का कुछ उस पर असर नहीं होता
यह अब मिलेगा तो लहजा बदल के देखूंगा
मज़ाक़ अच्छा रहेगा ये चाँद-तारों से
मैं आज शाम से पहले ही ढल के देखूँगा
अजब नहीं कि वही रौशनी मुझे मिल जाए
मैं अपने घर से किसी दिन निकल के देखूँगा
उजाले बाँटने वालों पे क्या गुज़रती है
किसी चिराग़ की मानिंद जल के देखूँगा
वो मेरे हुक्म को फ़रियाद जान लेता है
अगर ये सच है तो लहजा बदल के देखूँगा
मौत की तफ़सील होनी चाहिये
मौत की तफ़सील होनी चाहिये
शहर में एक झील होनी चाहिये
चाँद तो हर शब निकलता है मगर
ताक़ में क़न्दील होनी चाहिये
रौशनी जो जिस्म तक महदूद है
रूह में तहलील होनी चाहिये
हुक्म गूंगों का है लेकिन हुक्म है
हुक्म की तामील होनी चाहिये
है कबूतर जिस जगह तस्वीर में
उस जगह एक चील होनी चाहिये
अस्लहे तो ख़ैर फिर आ जायेंगे
कर्फ़यू में ढील होनी चाहिये
धर्म बूढ़े हो गए मज़हब पुराने हो गए
धर्म बूढ़े हो गए मज़हब पुराने हो गए
ऐ तमाशागार तेरे करतब पुराने हो गए
आज-कल छुट्टी के दिन भी घर पड़े रहते हैं हम
शाम, साहिल ,तुम, समंदर सब पुराने हो गए
कैसी चाहत क्या मुरव्वत क्या मुहब्बत क्या ख़ुलूस
इन सभी अल्फ़ाज़ के मतलब पुराने हो गए
रेंगते रहते हैं हम सदियों से सदियाँ ओढ़कर
हम नए थे ही कहाँ जो अब पुराने हो गए
आस्तीनों में वही खंजर वही हमदर्दियाँ
है नए अहबाब लेकिन ढब पुराने हो गए
एक ही मरकज़ पे आँखें जंग-आलूदा हुईं
चाक पर फिर-फिर के रोज़ो-शब पुराने हो गए
मेरी तेज़ी, मेरी रफ़्तार हो जा
मेरी तेज़ी, मेरी रफ़्तार हो जा
सुबक रौ, उठ कभी तलवार हो जा
अभी सूरज सदा देकर गया है
ख़ुदा के वास्ते बेदार हो जा
है फ़ुर्सत तो किसी से इश्क कर ले
हमारी ही तरह बेकार हो जा
तेरी दुश्मन है तेरी सादा लौही
मेरी माने तो तू कुछ दुश्वार हो जा
शिकस्ता कश्तियों से क्या उम्मीदें
किनारे सो रहे हैं, पार हो जा
तुझे कया दर्द की लज़्ज़त बताएँ
मसीहा ! आ कभी बीमार हो जा
ख़ाक से बढ़कर कोई दौलत नइ होती
ख़ाक से बढ़कर कोई दौलत नइ होती
छोटी मोटी बात पे हिज़रत नइ होती
पहले दीप जलें तो चर्चे होते थे
और अब शहर जलें तो हैरत नइ होती
तारीखों की पेशानी पर मोहर लगा
ज़िंदा रहना कोई करामात नइ होती
सोच रहा हूँ आखिर कब तक जीना है
मर जाता तो इतनी फुर्सत नइ होती
रोटी की गोलाई नापा करता है
इसी लिए तो घर में बरकत नइ होती
हमने ही कुछ लिखना पढ़ना छोड़ दिया
वरना ग़ज़ल की इतनी किल्लत नइ होती
मिसवाकों से चाँद का चेहरा छूता है
बेटा…इतनी सस्ती जन्नत नइ होती
बाजारों में ढूंढ रहा हूँ वो चीज़े
जिन चीजों की कोई कीमत नइ होती
कोई क्या राय दे हमारे बारे में
ऐसों वैसों की तो हिम्मत नइ होती
शाम से पहले शाम कर दी है
शाम से पहले शाम कर दी है
क्या कहानी तमाम कर दी है
आज सूरज ने मेरे आँगन में
हर किरन बे नयाम कर दी है
जिस से रहता है आसमां नाराज़
वह ज़मीं मेरे नाम कर दी है
दोपहर तक तो साथ चल सूरज
तूने रस्ते में शाम कर दी है
चेहरा-चेहरा हयात लोगों ने
आईनों की गुलाम कर दी है
क्या पढ़ें हम कि कुछ क़िताबों ने
रोशनी तक हराम कर दी है
हवा खुद अब के हवा के खिलाफ़ है जानी
हवा खुद अब के हवा के खिलाफ़ है जानी
दिए जलाओ के मैदान साफ़ है जानी
हमें चमकती हुई सर्दियों का खौफ़ नहीं
हमारे पास पुराना लिहाफ़ है जानी
वफ़ा का नाम यहाँ हो चूका बहुत बदनाम
मैं बेवफा हूँ मुझे एतराफ़ है जानी
है अपने रिश्तों की बुनियाद जिन शरायत पर
वहीं से तेरा मेरा इख़्तिलाफ़ है जानी
वो मेरी पीठ में खंज़र उतार सकता है
के जंग में तो सभी कुछ मुआफ़ है जानी
मैं जाहिलों में भी लहजा बदल नहीं सकता
मेरी असास यही शीन-काफ़ है, जानी
सबब वह पूछ रहे हैं उदास होने का
सबब वह पूछ रहे हैं उदास होने का
मिरा मिज़ाज नहीं बेलिबास होने का
नया बहाना है हर पल उदास होने का
ये फ़ायदा है तिरे घर के पास होने का
महकती रात के लम्हो ! नज़र रखो मुझ पर
बहाना ढूँढ़ रहा हूँ उदास होने का
मैं तेरे पास बता किस ग़रज़ से आया हूँ
सुबूत दे मुझे चेहरा-शनास होने का
मेरी ग़ज़ल से बना ज़ेहन में कोई तस्वीर
सबब न पूछ मिरे देवदास होने का
कहाँ हो आओ मिरी भूली-बिसरी यादो आओ
ख़ुश-आमदीद है मौसम उदास होने का
कई दिनों से तबीअ’त मिरी उदास न थी
यही जवाज़ बहुत है उदास होने का
मैं अहमियत भी समझता हूँ क़हक़हों की मगर
मज़ा कुछ अपना अलग है उदास होने का
मेरे लबों से तबस्सुम मज़ाक़ करने लगा
मैं लिख रहा था क़सीदा उदास होने का
पता नहीं ये परिंदे कहाँ से आ पहुँचे
अभी ज़माना कहाँ था उदास होने का
मैं कह रहा हूँ कि ऐ दिल इधर-उधर न भटक
गुज़र न जाए ज़माना उदास होने का
एक दो आसमान और सही
एक दो आसमान और सही
और थोड़ी उड़ान और सही
शहर आबाद हों दरिन्दों से
जंगलों में मचान और सही
धूप को नींद आ भी सकती है
छाँव की दास्तान और सही
बारिशों के हौंसले बुलन्द रहें
मेरा कच्चा मकान और सही
ये पसीना तो अपनी पूंजी है
चन्द मुट्टी लगान और सही
गालियों से नवाज़ता है मुझे
एक अहल-ए-ज़ुबान और सही
शहर में अमन है कई दिन से
कोई ताज़ा बयान और सही