नाराज़ -राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 7

नाराज़ -राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 7

ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ

ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ
वह इक लिहाफ़ मैं ओढूँ तो सर्दियाँ उड़ जाएँ

ख़ुदा का शुक्र कि मेरा मकाँ सलामत है
हैं इतनी तेज़ हवाएँ कि बस्तियाँ उड़ जाएँ

ज़मीं से एक तअल्लुक़ ने बाँध रक्खा है
बदन में ख़ून नहीं हो तो हड्डियाँ उड़ जाएँ

बिखर-बिखर सी गई है किताब साँसों की
ये काग़ज़ात ख़ुदा जाने कब कहाँ उड़ जाएँ

रहे ख़याल कि मज्ज़ूब-ए-इश्क़ हैं हम लोग
अगर ज़मीन से फूंकें तो आसमाँ उड़ जाएँ

हवाएँ बाज़ कहाँ आती हैं शरारत से
सरों पे हाथ न रक्खें तो पगड़ियाँ उड़ जाएँ

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ

बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते

बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते
एक सच के लिए किस-किस से बुराई लेते

आबले अपने ही अँगारों के ताज़ा हैं अभी
लोग क्यूँ आग हथेली पे पराई लेते

बर्फ़ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है
हम उसे साथ न लेते तो रज़ाई लेते

कितना मानूस-सा हमदर्दों का ये दर्द रहा
इश्क़ कुछ रोग नहीं था जो दवाई लेते

चाँद रातों में हमें डसता है दिन में सूरज
शर्म आती है अंधेरों से कमाई लेते

तुम ने जो तोड़ दिए ख़्वाब हम उन के बदले
कोई क़ीमत कभी लेते तो ख़ुदाई लेते

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है
सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है

जब से तू ने हल्की हल्की बातें कीं
यार तबीअत भारी भारी रहती है

पाँव कमर तक धँस जाते हैं धरती में
हाथ पसारे जब ख़ुद्दारी रहती है

वो मंज़िल पर अक्सर देर से पहुँचे हैं
जिन लोगों के पास सवारी रहती है

छत से उस की धूप के नेज़े आते हैं
जब आँगन में छाँव हमारी रहती है

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है

दुआओं में वह तुम्हें याद करने वाला है

दुआओं में वह तुम्हें याद करने वाला है
कोई फ़क़ीर की इमदाद करने वाला है

ये सोच-सोच के शर्मिन्दगी-सी होती है
वह हुक्म देगा जो फ़रियाद करने वाला है

ज़मीन ! हम भी तेरे वारिसों में हैं कि नहीं
वह इस सवाल को बुनियाद करने वाला है

यही ज़मीन मुझे गोद लेने वाली है
ये आसमां मेरी इमदाद करने वाला है

ये वक़्त तू जिसे बरबाद करता रहता है
ये वक़्त ही तुझे बरबाद करने वाला है

ख़ुदा दराज़ करे उम्र मेरे दुश्मन की
कोई तो है जो मुझे याद करने वाला है

तेरे वादे की तेरे प्यार की मोहताज नहीं

तेरे वादे की तेरे प्यार की मोहताज नहीं
ये कहानी किसी किरदार की मोहताज नहीं

आसमां ओढ़ के सोए हैं खुले मैदां में
अपनी ये छत किसी दीवार की मोहताज नहीं

ख़ाली कशकौल पे इतराई हुई फिरती है
ये फ़क़ीरी किसी दस्तार की मोहताज नहीं

ख़ुद कफ़ीली का हुनर सीख लिया है मैंने
ज़िन्दगी अब किसी सरकार की मोहताज नहीं

मेरी तहरीर है चस्पां मेरी पेशानी पर
अब जुबां ज़िल्लत-ए-इज़हार की मोहताज नहीं

लोग होंठों पे सजाए हुए फिरते हैं मुझे
मेरी शोहरत किसी अख़बार की मोहताज नहीं

रोज़ आबाद नये शहर किया करती है
शायरी अब किसी दरबार की मोहताज नहीं

मेरे अख़लाक़ की एक धूम है बाज़ारों में
ये वह शय है जो ख़रीदार की मोहताज नहीं

इसे तूफ़ां ही किनारे से लगा देते हैं
मेरी कश्ती किसी पतवार की मोहताज नहीं

मैंने मुल्कों की तरह लोगों के दिल जीते हैं
ये हुकूमत किसी तलवार की मोहताज नहीं

मौक़ा है इस बार रोज़ मना त्योहार

मौक़ा है इस बार रोज़ मना त्योहार अल्लाह बादशाह
अपनी है सरकार सातों दिन इतवार अल्लाह बादशाह

तेरी ऊँची ज़ात, लश्कर तेरे साथ, तेरे सौ सौ हाथ
तू भी है तैयार हम भी हैं तैयार अल्लाह बादशाह

सबकी अपनी फ़ौज, ये मस्ती वह मौज, सब हैं राजा भोज
शेख़, मुग़ल, अंसार, सब ज़ेहनी बीमार अल्लाह बादशाह

दिल्ली ता लाहौर, जंगल चारों ओर, जिसको देखो चोर
काबुल और कंधार तोड़ दे ये दीवार अल्लाह बादशाह

फ़र्क़ न इनके बीच, ये बन्दर वह रीछ, सबकी रस्सी खींच
सारे हैं मक्कार, सबको ठोकर मार अल्लाह बादशाह

पढ़े लिखे बेकार, दर दर हैं फ़नकार, आलिम फाज़िल ख़्वार
जाहिल, ढोर, गंवार, क़ौम के हैं सरदार अल्लाह बादशाह

वह कभी शहर से गुज़रे तो ज़रा पूछेंगे

वह कभी शहर से गुज़रे तो ज़रा पूछेंगे
ज़ख़्म हो जाते हैं किस तरह दवा पूछेंगे

गुम न हो जाएं मकानों के घने जंगल में
कोई मिल जाये तो हम घर का पता पूछेंगे

मेरे सच से उन्हें क्या लेना है मैं जानता हूँ
हाथ कुरआन पे रखवा के वह क्या पूछेंगे

ये रहा नामा-ए-आमाल मगर तुझ से भी
कुछ सवालात तो हम भी ऐ ख़ुदा पूछेंगे

वह कहीं किरनें समेटे हुए मिल जायेगा
कब रफू होगी उजाले की क़बा पूछेंगे

वह जो मुंसिफ़ है तो क्या कुछ भी सज़ा दे देगा
हम भी रखते हैं ज़ुबां पहले ख़ता पूछेंगे

शराब छोड़ दी तुमने कमाल है ठाकुर

शराब छोड़ दी तुमने कमाल है ठाकुर
मगर ये हाथ में क्या लाल-लाल है ठाकुर

कई मलूल से चेहरे तुम्हारे गाँव में हैं
सुना है तुम को भी इस का मलाल है ठाकुर

ख़राब हालों का जो हाल था ज़माने से
तुम्हारे फैज़ से अब भी बहाल है ठाकुर

इधर तुहारे ख़ज़ाने जवाब देते हैं
उधर हमारी अना का सवाल है ठाकुर

किसी गरीब दुपट्टे का कर्ज़ है उस पर
तुम्हारे पास जो रेशम की शाल है ठाकुर

दुआ को नन्हे गुलाबों ने हाथ उठाये हैं
बस अब यहाँ से तुम्हारा ज़वाल है ठाकुर

तुम्हारी लाल हवेली छुपा न पाएगी
हमे ख़बर है कहाँ कितना माल है ठाकुर

 

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