नाराज़ -राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 6
चराग़ों को उछाला जा रहा है
चराग़ों को उछाला जा रहा है
हवा पर रोब डाला जा रहा है
न हार अपनी न अपनी जीत होगी
मगर सिक्का उछाला जा रहा है
वो देखो मय-कदे के रास्ते में
कोई अल्लाह-वाला जा रहा है
थे पहले ही कई साँप आस्तीं में
अब इक बिच्छू भी पाला जा रहा है
मिरे झूटे गिलासों की छका कर
बहकतों को सँभाला जा रहा है
हमी बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन
हमें घर से निकाला जा रहा है
जनाज़े पर मिरे लिख देना यारो
मोहब्बत करने वाला जा रहा है
बरछी ले कर चांद निकलने वाला है
बरछी ले कर चांद निकलने वाला है
घर चलिए अब सूरज ढलने वाला है
मंज़रनामा वही पुराना है लेकिन
नाटक का उनवान बदलने वाला है
तौर तरीके बदले नरम उजालों ने
हर जुगनू अब आग उगलने वाला है
धूप के डर से कब तक घर में बैठोगे
सूरज तो हर रोज निकलने वाला है
एक पुराने खेल खिलौने जैसी है
दुनिया से अब कौन बहलने वाला है
दहशत का माहौल है सारी बस्ती में
क्या कोई अख़बार निकलने वाला है
मुझमें कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या
मुझमें कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या
बंद इक मुद्दत से हूँ, खुल जाऊँ क्या
आजिज़ी, मिन्नत, ख़ुशामद, इल्तिज़ा
और मैं क्या-क्या करूँ, मर जाऊँ क्या
कल यहाँ मैं था जहाँ तुम आज हो
मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊँ क्या
तेरे जलसे में तेरा परचम लिए
सैकड़ों लाशें भी हैं, गिनवाऊँ क्या
एक पत्थर है वो मेरी राह का
गर ना ठुकराऊँ तो ठोकर खाऊँ क्या
फिर जगाया तूने सोये शेर को
फिर वही लहजादराज़ी, आऊँ क्या
पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है
पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है
वो अब भी इक फटे रूमाल पर ख़ुश्बू लगाता है
उसे कह दो कि ये ऊँचाइयाँ मुश्किल से मिलती हैं
वो सूरज के सफ़र में मोम के बाज़ू लगाता है
मैं काली रात के तेज़ाब से सूरज बनाता हूँ
मिरी चादर में ये पैवंद इक जुगनू लगाता है
यहाँ लछमन की रेखा है न सीता है मगर फिर भी
बहुत फेरे हमारे घर के इक साधू लगाता है
नमाज़ें मुस्तक़िल पहचान बन जाती है चेहरों की
तिलक जिस तरह माथे पर कोई हिन्दू लगाता है
न जाने ये अनोखा फ़र्क़ इस में किस तरह आया
वो अब कॉलर में फूलों की जगह बिच्छू लगाता है
अँधेरे और उजाले में ये समझौता ज़रूरी है
निशाने हम लगाते हैं ठिकाने तू लगाता है
नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में
नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में
उजाले पांव पटकने लगे हैं पानी में
ये कोई और ही किरदार है तुम्हारी तरह
तुम्हारा ज़िक्र नहीं है मिरी कहानी में
अब इतनी सारी शबों का हिसाब कौन रखे
बड़े सवाब कमाए गए जवानी में
चमकता रहता है सूरज-मुखी में कोई और
महक रहा है कोई और रातरानी में
ये मौज-मौज नई हलचलें सी कैसी हैं
ये किस ने पाँव उतारे उदास पानी में
मैं सोचता हूँ कोई और कारोबार करूँ
किताब कौन ख़रीदेगा इस गिरानी में
तूफ़ां तो इस शहर में अक्सर आता है
तूफ़ां तो इस शहर में अक्सर आता है
देखें अबकि किसका नम्बर आता है
यारों के भी दाँत बहुत ज़हरीले हैं
हमको भी साँपों का मंतर आता है
सूखे बादल होंठों पर कुछ लिखते हैं
आँखों में सैलाब का मंज़र आता है
तक़रीरों में सबके जौहर खुलते हैं
अंदर जो पलता है बाहर आता है
बच कर रहना, इक क़ातिल इस बस्ती में
काग़ज़ की पोशाक पहनकर आता है
बोता है वो रोज़ तअफ़्फुन ज़हनों में
जो कपड़ों पर इत्र लगाकर आता है
रहमत मिलने आती है पर फैलाये
पलकों पर जब कोई पयम्बर आता है
सूख चुका हूँ फिर भी मेरे साहिल पर
पानी पीने रोज़ समन्दर आता है
उन आंखों की नींदें गुम हो जाती हैं
जिन आंखों को ख़्वाब मयस्सर आता है
टूट रही है हर दिन मुझ में एक मस्जिद
इस बस्ती में रोज़ दिसम्बर आता है
दिये जलाये तो अन्जाम क्या हुआ मेरा
दिये जलाये तो अंजाम क्या हुआ मेरा
लिखा है तेज हवाओं ने मर्सिया मेरा
कहीं शरीफ नमाज़ी कहीं फ़रेबी पीर
कबीला मेरा नसब मेरा सिलसिला मेरा
किसी ने ज़हर कहा है किसी ने शहद कहा
कोई समझ नहीं पाता है जायका मेरा
मैं चाहता था ग़ज़ल आस्मान हो जाये
मगर ज़मीन से चिपका है काफ़िया मेरा
मैं पत्थरों की तरह गूंगे सामईन में था
मुझे सुनाते रहे लोग वाकिया मेरा
जहाँ पे कुछ भी नहीं है वहाँ बहुत कुछ है
ये कायनात तो है खाली हाशिया मेरा
उसे खबर है कि मैं हर्फ़-हर्फ़ सूरज हूँ
वो शख्स पढ़ता रहा है लिखा हुआ मेरा
बुलंदियों के सफर में ये ध्यान आता है
ज़मीन देख रही होगी रास्ता मेरा
मैं जंग जीत चुका हूँ मगर ये उलझन है
अब अपने आप से होगा मुक़ाबला मेरा
खिंचा-खिंचा मैं रहा ख़ुद से जाने क्यों वरना
बहुत ज्यादा न था मुझसे फ़ासला मेरा
एक नया मौसम नया मंज़र खुला
एक नया मौसम नया मंज़र खुला
कोई दरवाज़ा मेरे अन्दर खुला
एक ग़ज़ल कमरे की छत पर मुन्तसिर
एक कलम रखा है काग़ज़ पर खुला
लेकिन उड़ने की सकत बाकी नहीं
है कई दिन से क़फस का दर खुला
चलते रहने का इरादा शर्त है
जब भी दीवारें उठी हैं दर खुला
हो गया ऐलान फिर एक जंग का
जितने वक़्फ़े में मेरा बकतर खुला
साथ रहता है यही एहसास-ए-जुर्म
किस के ज़िम्मे छोड़ आये घर खुला
अब मयस्सर ही कहां वह तन लेहाफ़
अब कहां रहता हूं मैं शब भर खुला
मैं ख़ुद अपने आप ही में बन्द था
मुद्दतों के बाद ये मुझ पर खुला
उम्र भर की नींद पूरी हो चुकी
तब कहीं जाकर मेरा बिस्तर खुला
कौन वह मिर्ज़ा असदुल्लाह खां
मुझ से वह तन्हाई में अक्सर खुला