धोण्ड्या नाई-विंदा करंदीकर -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vinda Karandikar
कभी कभी मैं
कोंकण के अपने गाँव जब जाता हूँ।
पुरानी स्मृतियों की ततैया आकर मुझको डस जाती हैं
और मुझे धोण्ड्या नाई की बातें मज़े की याद आती हैं।
धोण्ड्या नाई –
दो पँसेरी धान की खातिर
करता हजामत सारे घर की;
दादाजी का चिकना मुण्डन सफाचट,
गजानन की गोल चोटी रखना
और ‘क्रॉप’ मेरा असली शहरी
या फिर दाढ़ी (बचाकर मस्सों को)।
धोण्ड्या नाई-
महीने में कभी तो
चुपचाप आ जाता है पिछवाड़े;
और फिर,
मड़ैया के जाकर पीछे करता है कुछ अजीब-सा
जो हमें न कोई देखने देता।
धोण्ड्या नाई-
घनचक्कर, चाय नहीं पीता था!
आहार ही उसका तगड़ा होता था;
खाना देने से तो
रोकड़ा देना हमें किफ़ायती लगता था!
जब कभी उसे मिल जाती थी फुरसत
‘खण्ड्या’ भैंसे और ‘चाँदी’ भैंस को ऐसे ही मूँड़ जाता था;
इस काम के बदले उसे मिलता था नाश्ता
नाश्ता ही बस
माँ कहा करती-दो सेर से कम नहीं होता था!
धोण्ड्या नाई –
‘धोण्ड्या बोले तो खालिस पत्थर है’
कहते थे दादाजी हमारे,
‘एक बरस में
लगातार उसके बच्चे चार मर गये हैज़े से;
लेकिन यह धोण्ड्या अपना
जैसा था वैसा है! बदलाव नहीं कुछ;
जब तक बाकी एक बचा है
अर्थी उसकी उठाने को
मैं कहता हूँ तर जाएगा, मर जाये तो!’
धोण्ड्या नाई –
हजामत करने बैठ जाता है तब
बनिया विष्णु आकर उसको पकड़ लेता है।
मज़ाक थोड़ा-सा करने पर
शुरू कर देता है वह मुँह चलाना :
‘शरम तुझको थोड़ी-सी भी;
चार दिन का वादा किया था धोण्ड्या तूने,
बच्चे के लिए रुपये ले गया तेरह
और अब इस बात को महीने हो गये चौदह !
मैं कहता हूँ मूल को तो जाने दो,
कम से कम ब्याज की कौड़ियाँ तो दे दो!
मैं कोई काला खोत नहीं हूँ!
मैं हूँ बनिया विष्णु!
रुपये लाकर दे और
फिर ले जा किसबत अपनी।’
धोण्ड्या नाई –
खपच्ची जैसी अपनी बाँहों को नाक के पास जोड़कर
फिर कहता,
‘साहूकार जी!
आप सब तो भगवान हैं जी,
आपके रुपयों से ही तो बच्चा बच रहा
साक्षी है ईश्वर, इन रुपयों को तो मैं चुकाऊँगा ही,
बेटे को लिखी थी चिट्ठी, ‘भेज दे रुपये’
-आपके पाण्डु मास्टर ने ही तो लिख दी थी
आप चाहें तो पूछ लें उनसे-
बेटे की ओर से आपके
नहीं आये रुपये तो
‘भोरो’ भैंसे को बेच डालूँगा अबकी जोत के बाद।’
और तभी
कमीज उतारकर
खूटी पर टाँगते हुए
और तोंद के नीचे
खिसकी धोती को ऊपर खींचते,
दाढ़ी पर हाथ फेरते मज़े से
काका खोत कह देता,
‘धोण्ड्या , अरे हरामी,
इस भैंसे को तू बेचेगा कितनी दफा?
मेरा ब्याज चुकाने
कल ही तूने वायदा किया था इसे देने का;
और गदहे!
ठीक मेरे सामने
वही कहता है तू विष्णु बनिये से!”
धोण्ड्या नाई –
तबियत से ही दयालु;
लेकिन उसके हथियार देसी भयंकर!
बहुत पहले से ही
मुझसे ममता करता था,
जनेऊ में मुण्डन मेरा करते हुए
सहलाता था सिर को मेरे (खुजली भरे),
और फूंक देता था धीरे से,
गरदन पर तराशकारी करते हुए
सहन कर पाऊँ मैं इसीलिए
पुराने ज़माने की बातें मज़े-मजे की बताया करता
भूतों और ब्रह्मराक्षसों से उसका परिचय था पुराना!
भयकथाओं को सुनते हुए पता नहीं चलता था सिर का मूंड़ा जाना।
धोण्ड्या नाई-
जीव अजीबोगरीब था,
गाँधी वध के बाद
तुरत ही दूसरे दिन
दाढ़ी बनाते बनाते
हलके-से उसने मुझसे कहा गम्भीर होकर,
‘कहते हैं गाँधी मर गया;
बड़ी तमन्ना थी
इस तरफ़ आ जाता तो
फोकट में कर देता उसकी हज़ामत!’
आसपास ब्राह्मण थे
लेकिन उनमें बची नहीं थी
हँसने-रोने की हिम्मत!
(हँसना-रोना मूलतः एक ही हैं; आँसू की यही बात तो मज़े की।)
धोण्ड्या नाई –
मर गया पिछले बरस और मुक्त हो गया;
गिर गया मकान; ओसारा लेकिन बचा रहा!
जनानी बेचारी-घरवाली उसकी-
उसी में खाती है उबालकर;
कहती : ‘मुझे ले जाकर जिन्दा ही जला दो!’
बरतन माँजती रहती है।
खाती है:
सोती है;
जाग जाती है।
पता नहीं किस बात से डरती है,
धोण्ड्या की किसबत को हाथ कभी नहीं लगाती है!
ओसारे की एक अकेली खूँटी पर
अपने पट्टे को लपेटकर
किसबत करती है आराम;
सान चढ़ाने की चमड़ी पर रखकर सिर
हथियार भी सो गये हैं उसमें होकर जर्जर!
धोण्ड्या नाई –
‘धोण्ड्या बोले तो बस काला पत्थर।’
और कुछ यह भी कहते,
अक्ल नहीं थी उसे गिरस्ती चलाने की।
धोण्ड्या चल बसा, मुक्त हो गया।
जरूरत क्या मुझे फिक्र करने की
मेरे सिर की शक्ल अब हो गयी है बड़े चाँद-सी!
(अनुवाद : निशिकांत ठकार)