धार के इधर उधर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 1

धार के इधर उधर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 1

भारतमाता मन्दिर

(काशी)
इतना भव्य देश भूतल पर यदि रहने को दास बना है,
तो भारतमाता ने जन्मा पूत नहीं, कृमि-कीट जना है।
(जुलाई १९३८ में बी. टी. करने के उदेश्य से मैं
बनारस गया था । वहाँ मैं अप्रैल १९३९ तक रहा
किसी समय भारतमाता मंदिर देखने गया था ।
संगमरमर का बना भारत का मानचित्र देखकर
ऊपर की दो पंक्तियां मेरे मन में उठीं । मंदिर
की दर्शक-पुस्तक (विजिटर्स बुक) में, जहां तक
मुझे स्मरण है, मैंने ये पंक्तियां लिख दी थीं।-
हरिवंशराय बच्चन)

 रक्तस्नान

1
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!

ईसा बड़े हृदय वाले थे,
किंतु बड़े भोले-भाले थे,
चार बूँद इनके लोहू की इसका ताप हरेगी?
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!
2
आग लगी धरती के तन में,
मनुज नहीं बदला पाहन में,
अभी श्यामला, सुजला, सुफला ऐसे नहीं मरेगी।
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!
3
संवेदना अश्रु ही केवल,
जान पड़ेगा वर्षा का जल,
जब मानवता निज लोहू का सागर दान करेगी।
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी!

अग्नि-परीक्षा

1
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।

बढ़ती हैं लपटें भयकारी
अगणित अग्नि-सर्प-सी बन-बन,
गरुड़ व्यूह से धँसकर इनमें
इनका कर स्वीकार निमंत्रण;
देख व्यर्थ मत जाने पाये विगत युगों की शीक्षा-दीक्षा।
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।
2
सच है, राख बहुत कुछ होगा
जिस पर मोहित है तेरा मन,
किंतु बचेगा जो कुछ, होगा
सत्य और शिव, सुंदर कंचन;
किंतु अभी तो लड़ ज्वाला से, व्यर्थ अभी अज्ञात-समीक्षा।
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।
3
खड़े स्वर्ग में बुद्ध, मुहम्मद
राम, कृष्ण, औ’ ईशा नरवर,
मानवता को उच्च उठाने-
वाले अनगिन संत-पयंबर
साँस रोक अपलक नयनों से करते हैं परिणाम-प्रतीक्षा।
यह मानव की अग्नि-परीक्षा।

मानव का अभिमान

1
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

जिन वनैले जंतुओं से
था कभी भयभीत होता,
भागता तन-प्राण लेकर,
सकपकाता, धैर्य खोता,
बंद कर उनको कटहरों में बना इंसान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।
2
प्रकृति की उन शक्तियों पर
जो उसे निरुपाय करतीं,
ज्ञान लघुता का करातीं,
सर्वथा असहाय करतीं,
बुद्धि से पूरी विजय पाकर बना बलवान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।
3
आज गर्वोन्मत्त होकर
विजय के रथ पर चढ़ा वह,
कुचलने को जाति अपनी
आ रहा बरबस बढ़ा वह;
मनुज करना चाहता है मनुज का अपमान।
तुष्ट मानव का नहीं अभिमान।

युद्ध की ज्वाला

1
युद्ध की ज्वाला जगी है।

था सकल संसार बैठा
बुद्धि में बारूद भरकर,—
क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, मद की,
प्रेम सुमनावलि निदर कर;
एक चिन्गारी उठी, लो, आग दुनिया में लगी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।
2
अब जलाना और जलना,
रह गया है काम केवल,
राख जल, थल में, गगन में
युद्ध का परिणाम केवल!
आज युग-युग सभ्यता से काल करता बन्दगी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।
3
किंतु कुंदन भाग जग का
आग में क्या नष्ट होगा,
क्या न तपकर, शुद्ध होकर
और स्वच्छ-स्पष्ट होगा?
एक इस विश्वास पर बस आस जीवन की टिकी है।
युद्ध की ज्वाला जगी है।

व्याकुलता का केंद्र

1
जग की व्याकुलता का केंद्र—

जहाँ छिड़ा लोहित संग्राम,
जहाँ मचा रौरव कुहराम,
पटा हताहत से जो ठाम!
वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं।
जग की व्याकुलता का केंद्र।
2
जहां बली का अत्याचार,
जहां निबल की चीख-पुकार,
रक्त, स्वेद, आँसू की धार!
वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं है, वहां नहीं।
जग की व्याकुलता का केंद्र।
3
जहाँ घृणा करती है वास,
जहाँ शक्ति की अनबुझ प्यास,
जहाँ न मानव पर विश्वास,
उसी हृदय में, उसी हृदय में, उसी हृदय में, वहीं, वहीं।
जग की व्याकुलता का केंद्र।

इंसान की भूल

1
भूल गया है क्यों इंसान!

सबकी है मिट्टी की काया,
सब पर नभ की निर्मम छाया,
यहाँ नहीं कोई आया है ले विशेष वरदान।
भूल गया है क्यों इंसान!
2
धरनी ने मानव उपजाये,
मानव ने ही देश बनाये,
बहु देशों में बसी हुई है एक धरा-संतान।
भूल गया है क्यों इंसान!
3
देश अलग हैं, देश अलग हों,
वेश अलग हैं, वेश अलग हों,
रंग-रूप निःशेष अलग हों,
मानव का मानव से लेकिन अलग न अंतर-प्राण।
भूल गया है क्यों इंसान!

 पृथ्वी-रोदन

1
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।

ग्रह-ग्रह पर लहराता सागर
ग्रह-ग्रह पर धरती है उर्वर,
ग्रह-ग्रह पर बिछती हरियाली,
ग्रह-ग्रह पर तनता है अम्बर,
ग्रह-ग्रह पर बादल छाते हैं, ग्रह-ग्रह पर है वर्षा होती।
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।
2
पृथ्वी पर भी नीला सागर,
पृथ्वी पर भी धरती उर्वर,
पृथ्वी पर भी शस्य उपजता,
पृथ्वी पर भी श्यामल अंबर,
किंतु यहाँ ये कारण रण के देख धरणि यह धीरज खोती।
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।
3
सूर्य निकलता, पृथ्वी हँसती,
चाँद निकलता, वह मुसकाती,
चिड़ियाँ गातीं सांझ सकारे,
यह पृथ्वी कितना सुख पाती;
अगर न इसके वक्षस्थल पर यह दूषित मानवता होती।
सब ग्रह गाते, पृथ्वी रोती।

सृष्टिकार से प्रश्न

1
लक्ष्य क्या तेरा यही था?

धरणि तल से धूल उठकर
बन भवन-प्रासाद सुखकर,
देव मंदिर सुरुचि-सज्जित,
दुर्ग दृढ़, उन्नत धराहर,
हो खड़ी कुछ काल फिर से धूलि में मिल जाय।
2
लक्ष्य क्या तेरा यही था?
स्वर्ग को आदर्श रखकर
तप करे पृथ्वी कठिनतर
उठे तिल-तिल यत्न कर ध्रुव
क्रम चले युग-युग निरंतर
निकट जाकर स्वर्ग के, पर, नरक में गिर जाय।
3
लक्ष्य क्या तेरा यही था?
पशु खड़ा हो दो पगों पर
ले मनुज का नाम सुन्दर
और अविरत साधना से
देव बन विचरे धरा पर,
किंतु सहसा देवता से पशु पुनः बन जाय।

नभ-जल-थल

1
अंबर क्या इसलिये बना था—

मानव अपनी बुद्धि प्रबल से
यान बना चढ़ जाए छल से,
फिर अपने कर उच्छृंखल से
नीचे बसे शांत मानव के ऊपर भारी वज्र गिराए।
2
सागर क्या इसलिये बना था—
पोत बनाकर भारी भारी,
करके बेड़ों की तैयारी,
लेकर सैनिक अत्याचारी,
तट पर बसे शांत मानव के नगरों के ऊपर चढ़ धाए।
3
पृथ्वी क्या इसलिए बनी थी—
विश्व विजय की प्यास जगाए,
सेनाओं की बाढ़ उठाए,
हरा शस्य उपजाना तजकर
संगीनों की फसल उगाए,
शांतियुक्त श्रम-निरत-निरंतर मानव के दल को डरपाए।

मानव रक्त

1
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।

अब समा सकता न तन में,
क्रोध बन उतरा नयन में,
दूसरों के और अपने, लो रंगा पट-गात।
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।
2
प्यास धरती ने बुझाई,
देह मल-मलकर नहाई,
हरित अंचल रक्त रंजित हो गया अज्ञात।
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।
3
सिंधु की भी नील चादर
आज लोहित कुछ जगह पर,
जलद ने भी कुछ जगह की रक्त की बरसात।
रक्त मानव का हुआ इफ़रात।

व्याकुल संसार

1
व्याकुल आज है संसार!

प्रेयसी को बाहु में भर
विश्व, जीवन, काल गति से
सर्वथा स्वच्छंद होकर
आज प्रेमी दे न सकता, हाय, चुंबन-प्यार
व्याकुल आज है संसार।
2
गोद में शिशु को सुलाकर
विश्व, जीवन, काल गति का
ज्ञान क्षण भर को भुलाकर
मां पिला सकती नहीं है, हाय, पय की धार।
व्याकुल आज है संसार।
3
विगत सुख-सुधियाँ जगाकर
विश्व, जीवन, काल गति से
एक पल को मुक्ति पाकर
व्यक्त कर सकता न विरही, हाय, उर-उद्गार।
व्याकुल आज है संसार।

मनुष्य की निर्ममता

1
आज निर्मम हो गया इंसान।

एक ऐसा भी समय था,
कांपता मानव हृदय था,
बात सुनकर, हो गया कोई कहीं बलिदान।
आज निर्मम हो गया इंसान।
2
एक ऐसा भी समय है,
हो गया पत्थर हृदय है,
एक देता शीश, सोता एक चादर तान।
आज निर्मम हो गया इंसान।
3
किंतु इसका अर्थ क्या है,
खड्ग ले मानव खड़ा है,
स्वयं उर में घाव करता,
स्वयं घट में रक्त भरता,
और अपना रक्त अपने आप करता पान।
आज निर्मम हो गया इंसान।