धार के इधर उधर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 5
देश के लेखकों से
1
बहुत प्रसिद्ध खेल हैं कृपाण के,
कहां समान वह कलम-कमान के,
अचूक हैं निशान शब्द-बाण के,
कलम लिए
हुए कभी
न तुम डरो।
2
समस्त देश की बसेक टेक हो,
समस्त छिन्न-भिन्न जाति एक हो,
विमूढ़ता जहां वहाँ विवेक हो,
यही प्रभाव
शब्द-शब्द
में भरो।
3
न आज स्वप्न-कल्पना-सुरा छको,
न आज बात आसमान की बको,
स्वदेश पर मुसीबतें, सुलेखकों,
उसे प्रदान
आज लेखनी
करो।
नव विहान
1
नयन बनें नवीन ज्योति के निलय,
नवल प्रकाश पुंज से जगे हृदय,
नवीन तेज बुद्धि को करे अभय,
सुदीर्घ देश
की निशा
समाप्त हो।
2
जगह-जगह उड़े निशान देश का,
फ़रक ज़बान और वेश का,
बसेक धर्म हो प्रजा अशेष का,
स्वराष्ट्र-भक्ति
व्यक्ति-व्यक्ति
व्याप्त हो।
3
कि जो स्वदेश के चतुर सुजान हैं,
कि जो स्वदेश के पुरुष प्रधान हैं,
कि जो स्वदेश के निगाहबान हैं,
उन्हें अचूक
दिव्य दृष्टि
प्राप्त हो।
देश के कवियों से
1
सुवर्ण मृत्तिका हुई कलम छुई,
अमृत हर एक बिंदु लेखनी चुई,
कलम जहाँ गई वहाँ विजय हुई,
विफल रही
नहीं कभी
न भारती।
2
कलम लिए चले कि तुम कला चली,
कि कल्पना रहस्य-अंचला चली,
कि व्योम-स्वर्ग-स्वप्न-श्रृंखला चली,
तुम्हें स्वदेश-
पुतलियां
निहारतीं।
3
करो विचित्र इंद्रधनु-विभा परे,
तजो सुरम्य हस्ति-दंत-घरहरे,
न अब नखत निहारकर निहाल हो,
न आसमान देखते रहो खड़े,
तुम्हें ज़मीन
देश की
पुकारती।
देश-विभाजन-३
1
विदेश की कुनीति हो गई सफल,
समस्त जाति की न काम दी अक़ल,
सकी न भाँप एक चाल, एक छल,
फ़रक़ हमें
दिखा न फूल-
शूल में।
2
पहन प्रसून हार हम खड़े हुए,
कि खार मौत के गले पड़े हुए,
कृतज्ञ हम ब्रिटेन के बड़े हुए,
कि वह हमें
गया ढकेल
भूल में।
3
यही स्वतंत्रता-लता गया लगा,
कि मुल्क ओर-छोर खून से रंगा,
बिखेर बीज फूट के हुआ अलग,
स्वदेश सर्व काल को गया ठगा,
गरल गया
उलीच नीच
मूल में।
देश के नेताओं से
1
विनम्र हो ब्रिटेन-गर्व जो हरे,
विरक्त हो विमुक्त देश जो करे,
समाज किसलिए न देख हो दुखी,
कि उस महान
को खरीद
बंक ले।
2
स्वदेश बाग-डोर हाथ में लिए,
विशाल जन-समूह साथ में लिए,
कभी नहीं उचित कि हो अधोमुखी प्रवेश तुम
करो प्रमाद–
पंक में।
3
करो न व्यर्थ दाप, होशियार हो,
फला कभी न पाप, होशियार हो,
प्रसिद्ध है प्रकोप जन-जनार्दनी,
मिले तुम्हें न शाप होशियार हो,
तुम्हें कहीं
न राजमद
कलंक दे।
देश के नाविकों से
1
कुछ शक्ल तुम्हारी घबराई-घबराई-सी
दिग्भ्रम की आँखों के अन्दर परछाईं सी,
तुम चले कहाँ को और कहाँ पर पहुँच गए।
लेकिन, नाविक,
होता ही है
तूफान प्रबल।
2
यह नहीं किनारा है जो लक्ष्य तुम्हारा था,
जिस पर तुमने अपना श्रम यौवन वारा था;
यह भूमि नई, आकाश नया, नक्षत्र नए।
हो सका तुम्हारा
स्वप्न पुराना
नहीं सफल।
3
अब काम नहीं दे सकते हैं पिछले नक्शे,
जिनको फिर-फिर तुम ताक रहे हो भ्रान्ति ग्रसे,
तुम उन्हें फाड़ दो, और करो तैयार नये।
वह आज नहीं
संभव है, जो
था संभव कल।
आजादी की पहली वर्षगाँठ
1
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
आज़ादी का आया है पहला जन्म-दिवस,
उत्साह उमंगों पर पाला-सा रहा बरस,
यह उस बच्चे की सालगिरह-सी लगती है
जिसकी मां उसको जन्मदान करते ही बस
कर गई देह का मोह छोड़ स्वर्गप्रयाण।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
2
किस को बापू की नहीं आ रही आज याद,
किसके मन में है आज नहीं जागा विषाद,
जिसके सबसे ज्यादा श्रम यत्नों से आई
आजादी;
उसको ही खा बैठा है प्रमाद,
जिसके शिकार हैं दोनों हिन्दू-मुसलमान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
3
कैसे हम उन लाखों को सकते है बिसार,
पुश्तहा-पुश्त की धरती को कर नमस्कार
जो चले काफ़िलों में मीलों के, लिए आस
कोई उनको अपनाएगा बाहें पसार—
जो भटक रहे अब भी सहते मानापमान,
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
4
कश्मीर और हैदराबाद का जन-समाज
आज़ादी की कीमत देने में लगा आज,
है एक व्यक्ति भी जब तक भारत में गुलाम
अपनी स्वतंत्रता का है हमको व्यर्थ नाज़,
स्वाधीन राष्ट्र के देने हैं हमको प्रमाण।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
5
है आज उचित उन वीरों का करना सुमिरन,
जिनके आँसू, जिनके लोहू, जिनके श्रमकण,
से हमें मिला है दुनिया में ऐसा अवसर,
हम तान सकें सीना, ऊँची रक्खें गर्दन,
आज़ाद कंठ से आज़ादी का करें गान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
6
सम्पूर्ण जाति के अन्दर जागे वह विवेक–
जो बिखरे हैं, हो जाएं मिलकर पुनः एक,
उच्चादर्शों की ओर बढ़ाए चले पांव
पदमर्दित कर नीचे प्रलोभनों को अनेक,
हो सकें साधनाओं से ऐसे शक्तिमान,
दे सकें संकटापन्न विश्व को अभयदान।
आज़ादी का दिन मना रहा हिन्दोस्तान।
आजादी की दूसरी वर्षगाँठ
1
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
काल की गति फेंकती किस पर नहीं अपना अलक्षित पाश है,
सिर झुका कर बंधनों को मान जो लेता वही बस दास है,
थे विदेशी के अपावन पग पड़े जिस दिन हमारी भूमि पर,
हम उठे विद्रोह की लेकर पताका साक्षी इतिहास है;
एक ही संघर्ष दाहर से जवाहर तक बराबर है चला,
जो कि सदियों में नहीं बैठा कभी भी हार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
2
जो कि सेना साज आए चूर मद में हिन्द को करने फ़तह,
आज उनके नाम बाकी रह गई है कब्र भर की बस जगह,
किन्तु वह आजाद होकर शान से है विश्व के आगे खड़ा,
और होता जा रहा हि शक्ति से संपन्न हर शामो-सुबह,
झुक रहे जिसके चरण में पीढ़ियों के गर्व को भूले हुए,
सैकड़ों राजों-नवाबों के मुकुट-दस्तार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
3
हम हुए आजाद तो देखा जगत ने एक नूतन रास्ता,
सैकड़ों सिजदे उसे, जिसने दिया इस पंथ का हमको पता,
जबकि नफ़रत का ज़हर फैला हुआ था जातियों के बीच में,
प्रेम की ताक़त गया बलिदान से अपने जमाने को बता;
मानवों के शान्ति-सुख की खोज में नेतृत्व करने के लिए
देखता है एक टक जिसको सकल संसार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।
4
जाँचते उससे हमें जो आज हम हैं, वे हृदय के क्रूर हैं,
हम गुलामी की वसीयत कुछ उठाने के लिए मजबूर हैं,
पर हमारी आँख में है स्वप्न ऊँचे आसमानों के जगे,
जानते हम हैं कि अपने लक्ष्य से हम दूर हैं, हम दूर हैं;
बार ये हट जायेंगे, आवाज़ तारों की पड़ेगी कान में,
है रहा जिसको परम उज्जवल भविष्य पुकार, मेरा देश है।
जो खड़ा है तोड़ कारागार की दीवार, मेरा देश है।