धार के इधर उधर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 4

धार के इधर उधर -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 4

स्वदेश की आवश्यकता

1 हृदय भविष्य के सिंगार में लगे,
दिमाग़ जान ले अतीत की रगें,
नयन अतंद्र वर्तमान में जगें– स्वदेश को
सुजान एक
चाहिए।
2 जिसे विलोक लोग जोश में भरें,
जिसे लिए जवान शान से बढ़ें,
जिसे लिये जिएं, जिसे लिये मरें,
स्वदेश को
निशान एक
चाहिए।
3 कि जो समस्त जाति की उभार हो,
कि जो समस्त जाति की पुकार हो,
कि जो समस्त जाति-कंठहार हो,
स्वदेश को
ज़बान एक
चाहिए।

अभी विलम्ब है

1
क़दम कलुष निशीथ के उखड़ चुके,
शिविर नखत समूह के उजड़ चुके,
पुरा तिमिर दुरा चला दुरित वदन,
नव प्रकाश
में अभी
विलंब है।
2
ढले न गीत में नवल विहंग स्वर,
चले न स्वप्न ही नवीन पंख पर,
न खोल फूल ही सके नए नयन,
युग प्रभात
में अभी
विलंब है।
3
विदेश-आधिपत्य देश से हटा,
कलंक भाल पर लगा हुआ कटा,
स्वराज की नहीं छिपी हुई छटा,
मगर सुराज
में अभी
विलंब है।

चेतावनी-१

1
जगो कि तुम हज़ार साल सो चुके,
जगो कि तुम हज़ार साल खो चुके,
जहान सब सजग-सचेत आज तो,
तुम्हीं रहो
पड़े हुए
न बेख़बर।
2
उठो चुनौतियाँ मिलीं, जबाब दो,
क़दीम कौम-नस्ल का हिसाब दो,
उठो स्वराज के लिए ख़िराज दो,
उठो स्वदेश
के लिए
कसो कमर।
3
बढ़ो ग़नीम सामने खड़ा हुआ,
बढ़ो निशान जंग का गड़ा हुआ,
सुयश मिला कभी नहीं पड़ा हुआ,
मिटो मगर
लगे न दाग़
देश पर।

नया वर्ष

1
खिली सहास एक-एक पंखुरी,
झड़ी उदास एक-एक पंखुरी,
दिनांत प्रात, प्रात सांझ में घुला,
इसी तरह
व्यतीत वर्ष
हो गया।
2
गया हुआ समय फिरा नहीं कभी,
गिरा हुआ सुमन उठा नहीं कभी,
गई निशा दिवस कपाट को खुला,
गिरा सुमन
नवीन बीज
बो गया।
3
सजे नया कुसुम नवीन डाल में,
सजे नया दिवस नवीन साल में,
सजे सगर्व काल कंठ-भाल में नवीन वर्ष
को स्वरूप
दो नया।

चेतावनी-२

1
नहीं प्रकट हुई कुरूप क्रूरता,
तुम्हें कठोर सत्य आज घूरता,
यथार्थ को सतर्क हो ग्रहण करो,
प्रवाह में
न स्वप्न के
विसुध बहो।
2
कि तुम हिए सहिष्णुता लिए रहे,
कि तुम दुराव दैन्य का किए रहे,
तजो पलायनी प्रवृत्ति, कादरो,
बुरी प्रवंचना,
उसे
’विदा’ कहो।
3
विरुद्ध शक्तियां समक्ष आ खड़ीं,
हरेक पर जवाबदेहियां बड़ी,
यही, यही अभीत कर्म की घड़ी,
बने तमाशबीन
मत
खड़े रहो।

पटेल के प्रति

1
यही प्रसिद्ध लौह का पुरुष प्रबल
यही प्रसिद्ध शक्ति की शिला अटल,
हिला इसे सका कभी न शत्रु दल,
पटेल पर,
स्वदेश को
गुमान है।
2
सुबुद्धि उच्च श्रृंग पर किये जगह,
हृदय गंभीर है समुद्र की तरह,
क़दम छुए हुए ज़मीन की सतह,
पटेल देश
का निगाह-
बान है।
3 हरेक पक्ष को पटेल तोलता,
हरेक भेद को पटेल खोलता,
दुराव या छिपाव से उसे ग़रज़?
सदा कठोर नग्न सत्य बोलता,
पटेल हिंद
की निडर
ज़बान है।

राष्ट्र ध्वजा

1
नगाधिराज श्रृंग पर खड़ी हुई,
समुद्र की तरंग पर अड़ी हुई,
स्वदेश में सभी जगह गड़ी हुई अटल ध्वजा
हरी, सफेद
केसरी।
2
न साम-दाम के समक्ष यह रुकी,
यह दंड-भेद के समक्ष यह झुकी,
सगर्व आज शत्रु-शीश पर ठुकी,
विजय ध्वजा
हरी, सफ़ेद
केसरी।
3
चलो उसे सलाम आज सब करें,
चलो उसे प्रणाम आज सब करें,
अजर सदा, इसे लिये हुए जिए,
अमर सदा, इसे लिये हुए मरे,
अजय ध्वजा
हरी, सफ़ेद
केसरी।

 देश-विभाजन-१

1
सुमति स्वदेश छोड़कर चली गई,
ब्रिटेन-कूटनीति से छलि गई,
अमीत, मीत; मीत, शत्रु-सा लगा,
अखंड देश
खंड-खंड
हो गया।
2
स्वतंत्रता प्रभात क्या यही-यही!
कि रक्त से उषा भिगो रही मही,
कि त्राहि-त्राहि शब्द से गगन जगा,
जगी घृणा
ममत्व-प्रेम
सो गया।
3
अजान आज बंधु-बंधु के लिए,
पड़ोस-का, विदेश पर नज़र किए,
रहें न खड्ग-हस्त किस प्रकार हम,
विदेश है हमें चुनौतियां दिए,
दुरंत युद्ध
बीज आज
बो गया।

 ब्रह्म देश की स्वतंत्रता पर

1
सहर्ष स्वर्ग घंटियाँ बजा रहा,
कलश सजा रहा, ध्वजा उठा रहा,
समस्त देवता उछाह में सजे,
तड़क रही
कहीं गुलाम-
हथकड़ी।
2
हटी न सिर्फ हिंद-भूमि-दासता,
मिला अधीन को नवीन रास्ता,
स्वतंत्र जब समग्र एशिया बने,
रही नहीं
सुदूर वह
सुघर घड़ी।
3
स्वतंत्र आज ब्रह्म देश भी हुआ,
ब्रिटेन का उतर गया कठिन जुआ,
उसे हज़ार बार हिंद की दुआ,
प्रसन्न आँख
आँख देखकर
बड़ी।

देश के सैनिकों से

1
कटी न थी गुलाम लौह श्रृंखला,
स्वतंत्र हो कदम न चार था चला,
कि एक आ खड़ी हुई नई बला,
परंतु वीर
हार मानते
कभी?
2
निहत्थ एक जंग तुम अभी लड़े,
कृपाण अब निकाल कर हुए खड़े,
फ़तह तिरंग आज क्यों न फिर गड़े,
जगत प्रसिद्ध,
शूर सिद्ध
तुम सभी।
3
जवान हिंद के अडिग रहो डटे,
न जब तलक निशान शत्रु का हटे,
हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,
ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,
तजो न
सूचिकाग्र भूमि-
भाग भी।

 देश पर आक्रमण

1
कटक संवार शत्रु देश पर चढ़ा,
घमंड, घोर शोर से भरा बढ़ा,
स्वतंत्र देश, उठ इसे सबक सिखा,
बहुत हुई
न देर अब
लगा जरा।
2
समस्त शक्ति युद्ध में उड़ेल दे,
ग़नीम को पहाड़ पार ठेल दे,
पहाड़ पंथ रोकता, ढकेल दे,
बने नवीन
शौर्य की
परंपरा।
3
न दे, न दे, न दे स्वदेश की भुईं,
जिसे कि नोक से दबा सके सुई,
स्वतंत्र देश की प्रथम परख हुई,
उतर खरा,
उतर खरा,
उतर खरा।

देश के युवकों से

1
कठोर सत्य हैं, नहीं कहानियां,
जिन्हें सुना गई कई शताब्दियां,
करो अतीत की पुनः न गलतियां,
न कान बीच
उँगलियाँ
दिये रहो।
2
अनेक शत्रु देश पार हैं खड़े,
अनेक शत्रु देश मध्य हैं पड़े,
कुशल कभी नहीं बिना हुए कड़े,
सजग कृपाण
हाथ में
लिए रहो।
3
स्वतंत्रता लता अभी मृदुल नवल,
समूल पशु इसे कहीं न लें निगल,
कि हो हज़ार वर्ष की रगड़ विफल,
युवक सचेत
चौकसी
किए रहो।

आज़ादी के बाद

1
अगर विभेद ऊँच-नीच का रहा,
अछूत-छूत भेद जाति ने सहा,
किया मनुष्य औ’ मनुष्य में फ़रक़,
स्वदेश की
कटी नहीं
कुहेलिका।
2
अगर चला फ़साद शंख-गाय का,
फ़साद संप्रदाय-संप्रदाय का,
उलट न हम सके अभी नया वरक़,
चढ़ी अभी
स्वदेश पर
पिशाचिका।
3
अगर अमीर वित्त में गड़े रहे,
अगर गरीब कीच में पड़े रहे,
हटा न दूर हम सके अभी नरक,
स्वदेश की
स्वतंत्रता,
मरीचिका।

देश-विभाजन-२

1
दिखे अगर कभी मकान में झरन,
सयत्न मूँदते उसे प्रवीण जन,
निचिंत बैठना बड़ा गँवारपन,
कि जब समस्त
देश में
दरार हो।
2
रहे न साथ एक साथ जब रहे,
अलग, विरुद्ध पंथ आज तो गहे,
यही मिलाप है कि राम मुँह कहे,
मगर बग़ल
छिपी हुई
कटार हो।
3
सुदूर शत्रु सेन साजने लगा,
पड़ोस-का फ़िराक में कि दे दग़ा,
कहीं अचेत ही न जाय तू ठगा,
समय रहे
स्वदेश
होशियार हो।