दो चट्टानें -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 5
मुक्ति के लिए विद्रोह
वही है सब जड़ रूढ़ि-रीति-नीति-नियम-निगड़ के समक्ष
मेरे हदय में ऊहापोह,
मेरे मस्तिष्क में उद्वेलन,
मेरे प्राणों में उज्ज्वलन,
मेरे चेतन का मुक्ति के लिए विद्रोह !
सार्त्र के नोबल-पुरस्कार ठुकरा देने पर
(हिन्दी के बुद्धिजीवियों की सेवा में)
सवयस्क,
समानवर्मा,
और मेरी धृष्टता यदि हो क्षमा,
कुछ अंश में
समदृष्टि तुमको और अपने को
हृदय से मानता मैं;
सुन इसे कुछ मित्र
औ’ शत्रु मेरे
आज चौंकेंगे,
कहाँ अस्तित्ववादी, कहाँ बच्चन !
कहाँ नास्तिक, बुद्धिवादी, अविश्वासी,
कहाँ आस्तिक और भावातिशयवादी
और कुछ अस्पष्ट, कुछ अज्ञात,
कुछ अव्यक्त का विश्वास-कर्ता !
भ्रांतियां हैं विविध दोनों के विषय में
रहें, तेरा और मेरा क्या बिगड़ता
बीज है अस्तित्व का व्यक्तित्व
जिसके गीत मैंने
कम नहीं गाये, सुनाये
व्यक्ति की अनुभूति के,
अधिकार के,
उन्मुक्ति के,
स्वातंत्र्य के,
दायित्व के भी,
व्यक्ति है यदि नहीं निर्जन का निवासी।
अनृत, मिथ्या, रूढ़ि, रीति, प्रथा, व्यवस्था
नीति, मृत आदर्श के प्रति अविश्वासी,
पूर्ण,
बन मैं भी चला था;
किंतु देखा इसे मैंने,
अविश्वासी को नहीं आधार अंतिम प्राप्त होता।
एक दिन मैं
अविश्वासों प्रति अविश्वासी बना था
वृत पूरा हो गया था,
छोर ने मुड़कर सिरे को छू लिया था,
जिस तरह से पूँछ ने फन,
इस तरह विश्वास की
अव्यक्त कुछ, अज्ञात कुछ,
अस्पष्ट कुछ, रहसिल शिराएं छू रहा हूँ
एक दिन देखा इसे भी,
अंततः जो हूँ
तथा जो सोचता हूँ,
बोलता हूँ, कर रहा हूँ,
प्रकृति अपनी वर्तता हूँ
भाव भव का भोगता हूँ
बुद्धि तो केवल दुहाई दे रही है,
सिद्ध करती इन सबों को
तथ्य-संगत, तर्क-संगत, न्याय-संगत !
और ये सब हैं अपेक्षाकृत असंगत।
फ़र्क तुझमें और मुझमें सिर्फ़ इतना।
व्यक्ति मेरे लिये भी अंतिम इकाई,
और उसके सामने संसार सारा,
धर्म, रूढ़ समाज, शासन-तंत्र सारा,
प्रकृति सारी, नियति सारी,
देश सारा, काल सारा,
और उसको
एक, बस अस्तित्व अपने, सहारा;
गो मुझे आभास होता है
कि अपने में
कहीं पर और का भी है पसारा;
किंतु, यदि हो भी न तो भी
व्यक्ति मेरा नहीं हरा !!
व्यक्ति मेरा नहीं हारा !!
कौन उससे जो न जा सकता प्रचारा?
(और उसमें सम्मिलित है ‘और’ ऊपर का हमारा)
औ’ उसी की शत्रु बन
उसको दमित, कुष्ठित, पराजित,
दलित करने की गरज से
शक्तियाँ जो पश्चिमी जग में उठी थीं,
क्रूर तानाशाहियत की
और दुर्दम, भेदपूर्ण समूहशाही,
बन्धु, उनके सामने डटकर अकेले
मोर्चा तूने लिया था,
शस्त्र सबसे सबल,
सबसे स्वल्प लेकर लेखनी का!
और तुझसे पा सुरक्षा-आश्वासन
पश्चिमी संसार का पूरब व पश्चिम
हुआ था तुझ पर निछावर,
विनत प्रतिभापूर्ण तेरे युग चरण पर।
और पेरिस-मास्को ने
तुझे गुलदस्ते दिये थे,
किंतु लेने से किया इंकार तूने,
क्योंकि निज-निज स्वार्थ का
आरोप दोनों,
सार्त्र, तुझ पर कर रहे थे।
बात यह थी-
व्यष्टि की लेकर इकाई
था उसे तूने बड़ा व्यापक बनाया,
किंतु उसकी एक सीमा भी बनाई,
जिस जगह पर पा समिष्ट
बने दहाई वह इकाई-
हो भले ही मूल्य शून्य
समष्टि का तेरी नज़र में-
गो मुझे आभास होता है
कि मेरा व्यष्टि केवल शून्य,
उसका मूल्य लगता है
उसे मिल जाये जब
अस्पष्ट की, अज्ञात की,
अव्यक्त सत्ता की दहाई !
(शून्य, जिससे मूल्य बढ़ता
कम नहीं उसकी महत्ता)
द्रविड़ प्राणायाम है यह
गणित अंकों का विनोदी,
वस्तुतः व्यवहार में हम
एक ही कुछ कर रहे हैं,
फार्मूलों में कभी बँधता न जीवन,
शब्द-संख्या फार्मूले ही नहीं तो और क्या हैं?
तथ्य केवल,
व्यष्टि करके मुख्यता भी प्राप्त
अपने आप में सब कुछ नहीं है !
पूर्व को स्वाधीनता है
व्याख्या अपनी उसे दे
और पश्चिम को यही स्वाधीनता है।
देख, लेकिन,
क्या हुआ परिणाम उसका
क्या उपयोग उसका युग-शिविर में?
पूर्व-पश्चिम
शून्य-कन्दुक-दशमलव का
व्यष्टि के—तेरी प्रतिष्ठित जो इकाई–
कभी आगे, कभी पीछे फैंकते हैं
और अचरज-चकित
उनको देखता तू
और तुझको देखते वे।
सिद्ध प्रतिभा तो वही है
सामने जिसके निखिल संसार
मुँह बाये खड़ा हो !
जब तुझे आकर्ष
औ’ सम्मान और स्नेह
जनता का मिला था,
क्या ज़रूरत थी तुझे, तू
विश्वविद्यालई
या कि अकादमीवी
या कि सरकारी
समादर, पुरस्कार, उपाधि की
परवाह करता।
वे रहे आते, लुभाते तुझे,
पर दुत्कातरता उनको रहा तू।
विश्वविद्यालय बँधे हैं
विगत मूल्य परम्परा में–
तू रहा जिनका विरोधी–
और अब तो बिक रहे वे,
राजनीति खरीदती है।
आज उनकी डिग्रियाँ-आनरिस-काजा—
योग्यता के लिये
प्रतिभावान को अर्पित न होती,
कूटनीतिक कारणों से
दी, दिलाई और पाई जा रही है।
औ’ अकादमियाँ
समय जर्जरित, जड़-हठ-हूश,
दकियानूस,
सिद्धांतों-विचारों के जठर अड्डे रही हैं,
और अब वे
स्वार्थ-साधक, चालबाज़, प्रचारकामी
क्षुद्रताओं की बड़ी दुर्भेद्य गढियाँ,
और उनके प्रति सदा
विद्रोह तू करता रहा है,
और उनकी भर्त्सना भी।
और सरकारें कभी होती नहीं
पाबन्द
सच की, न्याय, नैतिकता, उचित की;
उचित-अनुचित,
जो बनाये रहे उनकी अडिग सत्ता,
बे-हिचक, बे-झिझक है करणीय उनको।
शक्ति-साधन आज वे सम्पन्न इतनी,
कौन निर्णय है जिसे वे
निबल व्यष्टि, समष्टि सिर पर
लाद या लदवा न सकती?—
औ’ कहीं तो वे
उठाईगीर, चोरों औ’ उचक्कों के करों के
सूत की कठपुतलियाँ हैं,
जो कि अपने मौसियाउर भाइयों को,
या भतीजे, भानजों को,
चाहती जो भी दिलातीं,
चाहती जितना उठाती,
चाहती जिस पद सिंहासन पर बिठातीं;
डोरियाँ वे, किंतु प्रतिभा की कलम को
नाचया नचवा न पातीं।
ओसलो की
एक संस्था थी,
अगर निष्पक्षता की
आन वह अपनी निभाती,
मान कर तेरा स्वयं हो मान्य जाती;
किंतु अब वह
युग-विकृति-वश
पक्ष्धर शासन व्यवस्था की
शिकार बनी हुई है;—-
नाम पास्तरनाक का बरबस मुझे हो याद आया।
आज उसने मान देने का
तुझे निर्णय किया है,
और तूने मान वह ठुकरा दिया है,
और इस पर कुछ नहीं अचरज मुझे है।
सार्त्र,
उसके मान का यदि पात्र तू था,
आज से बारह बरस पहले
नहीं क्या बन चुका था?
उस समय
यूरोप में था मैं;
वहाँ के बुद्धिजीवी दिग्गजों में
नाम तेरा श्रृंग पर था।
आज मैं यह सोचता,
बारह बरस तक
ओसलो सोता रहा क्यों?
और इस सम्मान से
वंचित तुझे रखता रहा क्यों?
और यह सम्मान
तुझसे बहुत छोटों को
समर्पित- भूल तेरा नाम-
ग्यारह साल तक करता रहा क्यों?
देखता क्या वह नहीं था
निज प्रतिष्ठित इकाई के
किस तरफ़ तू,
शून्य-कन्दक-दशमलव रखने लगा है,
वाम या दक्षिण तरफ़
संवेदना तेरी झुकी है,
किंतु तू स्थितप्रज्ञ-सा
कूटस्थ सा बैठा रहा है,
पूर्व-पश्चिम के लिये
बनकर समस्या,
हल न जिसका !
और अपनी भूल
अपनी हार,
अब स्वीकार कर वह
विवश होकर
मान यह देने चला है।
किंतु लेने के लिये अब देर ज़्यादा हो चुकी है।
संस्थाऐं—हों भले ही विश्व-वन्दित—
यह नहीं अधिकार उनको—
क्योंकि उनके पास धन-बल–
जिस समय चाहें दिखायें मान-टुकड़ा,
और प्रतिभा दुम हिलाती
दौड़ उनके पाँव चाटे !
सार्त्र ने जिस व्यक्ति का ‘आदर’ बढ़ाया,
शान के अनुरूप उसके यह नहीं
वह बेच डाले स्वाभिमान
खरीदने को मान,
उसका मूल्य कितना ही बड़ा हो
क्यों न जग में।
समय से सम्मान उसका
न करना, अपमान करने के बराबर,
और अवमानित हुई प्रतिभा
नहीं आपात-वृत्तिक मान से संतुष्ट होती।
सार्त्र को सम्मान देकर
स्थान देने का समय अब जा चुका है—
मान, या अपमान, या उसकी उपेक्षा,
इस समय पर
इंच भर ऊपर उठा सकता न उसको,
इंच भर नीचे गिरा सकती न उसको।
साठ के नज़दीक अब तू, और मैं भी;
इस उमर में पहुँच
जीवन-मान सारे बदल जाते,
मान औ’ अपमान खोते अर्थ अपना,
कर चुका अभिव्यक्ति तब व्यक्तित्व
सब सामर्थ्य अपना !
कल्पना में कर रहा हूँ,
किसी पेरिस की सड़क पर
किसी कैफ़े में,
अकेले,
हाथ टेके मेज़ पर, बैठा हुआ तू,
और तेरी उंगलियों में
एक सिगरेट जल रही है,
देखता निरपेक्ष तू
बाज़ार की रंगरेलियों को !
ख़बर आई है कि तुझको
ओसलो का पुरस्कार दिया गया
साहित्य विषयक !
और अन्य मनस्कता से
झाड़कर सिगरेट
तूने सिर्फ़ इतना ही कहा है—-
’वह नहीं स्वीकार मुझको’।
मित्र, लेखक बन्धु, प्रेस-रिपोर्टर,
तुझको मनाने में सफल हो नहीं पाये जो,
निराश चले गये हैं,
और लेकर कार तू
है दूर जाता भीड़ से, अज्ञात पथ पर,
गीत शायद एक मेरा गुनगुनाता,
शब्द हों कुछ दूसरे पर
भाव तो निश्चय यही हैं,
जिन चीज़ों की चाह मुझे थी,
”जिनकी कुछ परवाह मुझे थी,
दीं न समय से तूने, असमय क्या ले उन्हें करूँगा !
कुछ भी आज नहीं मैं लूँगा”
और अब
संसार में तेरी प्रतिष्ठा
पुरस्कारभिषेकितों से बढ़ गई है।
कलम की महनीयता
स्थापित हुई,
स्वाधीनता रक्षित हुई है
औ’ कलम को मिली ऊँचाई नई है।
आयरिश कवि की किखी यह पंक्ति
स्मृति में कौंध जाती—-
’द किंग्स आर नेवर मोर रॉयल
दैन व्हेन एब्डिकेटिंग !’
राजसी लगता अधिकतम
जबकि राजा
राजसिंहासन स्वयं ही त्याग देता !
जन या सज्जन बिठायें
उर-सिंहासन पर जिसे
उसके लिये कंचन सिंहासन धूल-मिट्टी।
जन समर्पित शब्द-शिल्पी के लिये
आसन उचित केवल वही,
केवल वही,
केवल वही है।
इसी को कुछ अन्य शब्दों में
हमारे पूज्य बाबा कह गये हैं—-
“बनै तो रघुपति से बनै
कै बिगड़े भरपूर,
तुलसी बनै जो आनतें
ता बनिबे पै धूर”
और ‘रघुपति’ कौन है?—
केवल वही है
जो कि है ‘व्यक्तित्व’ की तेरे,
इकाई,
जो दहाई, सैंकड़े
सौ सैंकड़ों के सामने
अपनी इकाई मात्र के बल
खड़े होते,
कड़े होते,
थापते रुचि—रक्ति अपनी
सबों को देते चुनौती,
आत्म सम्मान, आत्म रक्षा के लिये
करते सतत संघर्ष
लड़ते आत्मवानों की लड़ाई,
नभ-विचुम्भित हों भले ही,
हों भले ही धराशाई !
जयतु रघुराई, जयतु श्री राम रघुराई !!!!
धरती की सुगंध
आज मैं पतझार की
जिन गिरी, सूखी, मुड़ी, पीती पत्तियों पर
चर्र-चरमर चल रहा हूँ
वे पताकाएँ कभी मधुमास की थीं,
मृत्यु पर जीवन,
प्रलय पर सृष्टि का,
या नाश पर निर्माण का
जयघोष करती-हरी, चिकनी, नई
नीची डाल से धुर टुनगुनी तक लगी, छाई,
चांद-सूरज-किरणमाला की खेलाई,
पवन के झूले झुलाई,
मेघ नहलाई,
पिकी के कूक-स्वर से थरथराई,
सुमन-सौरभ से बसाई ।
नील नि:सीमित गगन का
नित्य दुलराया हुआ यह विभव,
यह श्रृंगार,
जब से सृष्टि बिरची गई
कितनी बार
धरती पर गिरा है,
और माटी में मिला है,
औ’ उसी में भिन गया है!
जो विभूति-वसुंधरा,
मुझको ज़रा अचरज नहीं
इतनी विचित्र विमोहिनी तू
और इतनी उर्वरा है,
और कण प्रत्येक तेरा
शब्द-शर
लक्ष्य-भेदी
शब्द-शर बरसा,
मुझे निश्चय सुदृढ़,
यह समर जीवन का
न जीता जा सकेगा।
शब्द-संकुल उर्वरा सारी धरा है;
उखाड़ो, काटो, चलाओ-
किसी पर कुछ भी नहीं प्रतिबंध;
इतना कष्ट भी करना नहीं,
सबको खुला खलिहान का है कोष-
अतुल, अमाप और अनंत।
शत्रु जीवन के, जगत के,
दैत्य अचलाकार
अडिग खड़े हुए हैं;
कान इनके विवर इतने बड़े
अगणित शब्द-शर नित
पैठते है एक से औ’
दूसरे से निकल जाते।
रोम भी उनका न दुखता या कि झड़ता
और लाचारी, निराशा, क्लैव्य कुंठा का तमाशा
देखना ही नित्य पड़ता।
कब तलक,
औ’ कब तलक,
यह लेखनी की जीभ की असमर्थ्यता
निज भाग्य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ’ कब तलक,
अपमान औ’ उपहासकर
ऐसी उपेक्षा शब्द की होती रहेगी?
कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मुखिया
वज्रदंत, निशंक मुख की;
मुख न होगा
गगन-गर्विले,
समुन्नत-भाल
सर का;
सर न होगा
सिंधु की गहराइयें से
धड़कनेवाले हृदय से युक्त
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजाओं का
कि जो है एक पर
संजीवनी का श्रृंग साधो,
एक में विध्वंस-व्यग्र
गदा संभाले,
उन पगों का-
अंगदी विश्वासवाले-
जो कि नीचे को पड़ें तो
भूमी काँपे
और ऊपर को उठें तो
देखते ही देखते
त्रैलोक्य नापें।
सह महा संग्राम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो दूर है, लड़ना भी
कभी संभव नहीं है
शब्द के शर छोड़नेवाले
सतत लघिमा-उपासक मानवों से;
एक महिमा ही सकेगी
होड़ ले इन दानवों से।
नया-पुराना
प्याज का
पुराना, बाहरी, सूखा छिलका
उतरता है,
और भीतर से
नया, सरस रुप
उघरता है, निकलता है ।
कलाकार के नाते
जो प्रार्थना
मैं सबसे अघिक दुहराता हूँ
वह यह है:
जो आकांक्षा है,
जो प्यास है,
(वह आज का वरदान नहीं ?)
वह कल का वरदान नहीं,
वह बहुत-बहुत पुरानी
प्रवृत्ति-प्रकृति का वरदान है
जो मेरे जन्म से,
मेरे तन, मेरे मनस के
पूर्वजों के जन्म से,
हमारा सहज धर्म रहा है ।
प्याज का
जो सबसे पहला छिलका
उतरा था
वह उसका सबसे नया रुप था;
जो सबसे बाद को उतरेगा
वह उसका सबसे पुराना रूप होगा ।
उद्घाटन नए से पुराने का होता है,
सृजन पुराने से नए का होता है ।
‘एहि क्रम कर अथ-इती कहुं नाहीं !’
दो चट्टानें
अथवा
सिसिफ़स बरक्स हनुमान
“You have already grasped that
Sisyphus is the absurd hero.”
Albert Camus
[कुछ शब्द इस कविता की प्रवेशिका के रूप में]
यह प्रतीकात्मक कविता है । प्रतीक दंतकथायों से लिए गए हैं । दंतकथाएं इतिहास
लेकर उभरना स्वाभाविक था । उसका उद्देश्य था काल्पनिक आश्वासन-आशा से विमुक्त, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक-हर प्रकार की व्यवस्था के पति विद्रोही, जीवन के भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक तथ्यों के प्रति पूर्ण सचेत, और तर्कसंयमित विचार तथा निर्बाध अनुभूतियों के अधिकार से समन्वित व्यष्टि की उस इकाई की प्रतिष्ठा जो अपने अतिरिक्त सब कुछ की तुलना में सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्त्व अपने को दे सके-आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् । ऐसे तयक्ताश, असंतुष्ट, विमुक्त, विद्रोही व्यष्टि को साकार करने के लिए योरोपीय, विशेषकर फ्रांसीसी और चेक कथा-साहित्य में बहुत-से पात्रों का निरूपण किया गया जो अपने अस्तित्व को जीने के लिए भीषण संघर्ष करते हैं । अलबेर कामू ने उसके संघर्ष की प्रतिकृति पुरानी दंतकथा में सिसिफ़स के संघर्ष में पाई और उसे युग-व्याप्त चौमुखी-निरर्थकता का नायक माना-‘दि ऐबसर्ड हीरो ।
मैंने विद्यार्थी-जीवन के स्वाध्याय में सिसिफ़स से परिचय किया था, पर उस समय यह नहीं समझा था कि निकट भविष्य में यह मानव-मनस् का प्रतीक बनकर खड़ा होगा । आज से दस वर्ष पूर्व जब योरोप की दार्शनिक विचार-धारा में मैंने उसे अपने नए सन्दर्भ में देखा तो वह अपरिचित नहीं लगा । पन्द्रह वर्ष पूर्व अपनी व्यक्तिगत वेदना की जाग में मैं प्राय: उसी की सी अभिवृत्ति (मूड) में होकर निकल गया था- “व्यर्थ जीवन भी, मरन भी’ – ‘व्यर्थ’ को हम ‘ऐबसर्ड’ का पर्याय मान लें तो अभिव्यक्ति में भी शायद ही कोई विशेष अन्तर दिखाई दे । और विचित्र है कि उस व्यर्थता से ऊपर उठने का भी वही आग्रह था जो पाश्चात्य विचारक में-‘निश्चय था गिर मर जाएगा, चलता, किंतु, जीवन भर’ और इन पंक्तियों में तो
चार कदम उठकर मरने पर मेरी लाश चलेगी’
‘गरल पान करके तू बैठा,
फेर पुतलियां, कर-पग ऐंठा,
यह कोई कर सकता, मुर्दे, तुझको अब उठ गाना होगा ।’
वह आग्रह उससे कहीं अधिक तीव्रता से व्यक्त हुआ है जहाँ वह विचारक मनुष्य को सूने मरू के बीच में भी जीने और सृजन करने को प्रेरित करता है । मौलिक रूप में कामू के विचार भी १੯४० के लगभग व्यक्त हुए थे । क्या विचारों की एक प्रच्छन्न धारा चलती है जो पूर्व-पश्चिम सबको लगभग एक ही तरह भिगाती है ?
बीच की कहानी ‘निशा निमंत्रण’ से लेकर मेरे अब तक के संग्रहों में लिखी है ।
भ्रांति की, सन्देह की अनुमान की
बहु घाटियां
गहरी, कुहासे-भरी,
सँकरी और चौड़ी
दूर तक फैली हुई हैं ।
सत्य
बहुत बड़ा महत्त्वाकांक्षी हो,
सत्य की,
पर,
एक मर्यादा बनी है,
तोड़ जिसको वह कभी पाया नहीं है,
तोड़ भी सकता नहीं है ।
एक ऐसा बिन्दु है
जिस तक पहुंचकर
सत्य के ये
समय-पक्व, सफेद-केशी, सर्द भूधर,
जान सीमा आ गई है,
शीश अपना झुका देते ।
कल्पना का तुंग,
पर, उन्मुक्त है,
उस बिन्दु के भी पार जाए,
तारकों से सिर सजाए,
भेद सप्तावरण डाले,
शक्ति हो तो,
भक्ति हो तो,
उस परम अज्ञात के;
अव्यक्त के भी चरण छू ले,
लीन उनमें,
एक उनसे हुआ,
निज अस्तित्व भूले ।
दूर ही वे
परम पुरुषोत्तम चरण हैं,
दूर ही दुर्भेद्य ये सप्तावरण हैं,
दूर ही वे
गगन के अगणित सितारे झिलमिलाते;
किन्तु, फिर भी,
कल्पना का तुंग जितना उठ सका है
उसी से वह आधिभौतिक,
ऐतिहासिक, वैज्ञानिक,
तथ्य-सम्मत, तर्क-सम्मत
अर्द्ध सत्यों के
अगिनत् पर्वतों को
बहुत पीछे, बहुत नीचे छोड़ आया ।
इस सतह पर
सत्य
अपना अतिक्रमण करके खड़ा है ।
इस जगह का सत्य
सारे अर्द्ध सत्यों और सत्यों से
बृहत्तर है, बड़ा है ।
इस सतह पर
भूत-भव्य-भविष्य
काल-विभाग का मतलब नहीं है ।
पाग-सा वह
शैल के सिर पर बँधा है ।
देश से दूरी-निकटता
ही नहीं गायब हुई है,
यहां उस पर कहीं सीमा भी न लगती।
एक वातावर्त का
पटका बना-सा
शैल की कटि में लपेटा ।
(इस काव्य संग्रह की कई रचनायें अधूरी हैं)