तेरे द्वार नहीं आऊँगा-शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
जब तक ये श्वासें अपनी हैं, धीरज से परिचय है मेरा।
झोली फैलाए कम से कम, तेरे द्वार नहीं आऊँगा।।
घातक गरल-सिन्धु से मेरा, एक बूँद गंगाजल काफ़ी।
उस बस्ती में रुकना भी क्या, जिस में बसते हों अपराधी?
थक कर चूर-चूर हूँ, लेकिन चलने का अभ्यास बहुत है।
मैं अभीष्ट तक नहीं रुकूँगा, एक यही व्रत, यही शपथ है।।
मुड़ कर तुम तक आ जाऊँ तो, प्राण-दण्ड दिलवाना मुझको-
युग के संदीपन! मैं तुमसे, जीवन-दान नहीं चाहूँगा।।
मेरे ज्ञान-दीप पर तेरे, सौ सूरज हो गए निछावर।
फिर भी कितना मगन हुआ तू, उनको आसन पर बैठाकर।।
तू गुरु कहाँ! एक तिनका है, मैं जिस दिन बन गया प्रभंजन-
अपनी करनी पर हिलकेगा, हो जाएँगे नयन-निरंजन।।
जब तक अमर रही अर्धाली ‘क्षुद्र नदी जल भरि उतराहीं’-
अपनी तृषा बुझाने मैं भी, तेरे घाट नहीं आऊँगा।।
तुम मेरे पाहुन आए तो, मैं इतना सत्कार करूँगा।
तुम्हीं कहो ‘बस-बस किस घट में- इतने सारे रतन भरूँगा?’
तन से तो फ़कीर हूँ; लेकिन मन से बहुत बड़ा दानी हूँ।
काया पाहन से क्या कम, पर मन से प्रवहमान पानी हूँ।।
जब तक गति है इन पाँवों में, सूजन भले रहे घावों में-
आँसू कभी नहीं छलकेंगे, हारा गान नहीं गाऊँगा।।
मेरे मन, मेरी बाँहों में, इतना साहस, इतना बल है।
व्यथा कृपण हो गई, कुचालों का हर अगला चरण विफल है।।
अपना हाथ उठाना भी मत, मेरा भाल कलंकित होगा।
बाँचो, मूढ़! हथेली पहले, कहीं ‘अधम नर’ अंकित होगा।।
जब तक धरा वरेगी श्रम को, प्राची जनती रही सवेरा।
तुम आश्वस्त रहो रजनी के तम से मात नहीं खाऊँगा।।
-23 नवंबर, 1964