तेरा हार-हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 1
स्वीकृत
(१)
घर से यह सोच उठी थी
उपहार उन्हें मैं दूँगी,
करके प्रसन्न मन उनका
उनकी शुभ आशिष लूँगी ।
(२)
पर जब उनकी वह प्रतिभा
नयनो से देखी जाकर,
तब छिपा लिया अञ्चल में
उपहार हार सकुचा कर ।
(३)
मैले कपड़ों के भीतर
तण्डुल जिसने पहचाने,
वह हार छिपाया मेरा
रहता कब तक अनजाने ?
(४)
मैं लज्जित मूक खड़ी थी,
प्रभु ने मुस्करा बुलाया,
फिर खड़े सामने मेरे
होकर निज शीश झुकाया !
आशे !
(१)
भूल तब जाता दुख अनन्त,
निराशा पतझड़ का हो अन्त
हृदय में छाता पुन: वसन्त,
दमक उठता मेरा मुख म्लान
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(२)
पथिक जो बैठा हिम्मतहार,
जिसे लगता था जीवन भार,
कमर कसता होता तैयार,
पुन: उठता करता प्रस्थान,
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(३)
डूबते पा जाता आधार,
सरस होता जीवन निस्सार,
सार मय फिर होता संसार,
सरल हो जाते कार्य महान,
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
(४)
शक्ति का फिर होता संचार,
सूझ पड़ता फिर कुछ-कुछ पार,
हाथ में फिर लेता पतवार,
पुन: खेता जीवन जल यान,
देवि ! जब करता तेरा ध्यान ।
नैराश्य
(१)
निशा व्यतीत हो चुकी कब की !
सूर्य किरण कब फूटी!
चहल-पहल हो उठी जगत में,
नींद न तेरी टूटी!
(२)
उठा उठा कर हार गई मैं,
आँख न तूने खोली,
क्या तेरे जीवन-अभिनय की
सारी लीला हो ली ?
(३)
जीवन का तो चिन्ह यही है
सो कर फिर जग जाना,
क्या अनंत निद्रा में सोना
नहीं मृत्यु का आना ?
(४)
तुझे न उठता देख मुझे है
बार बार भ्रम होता–
क्या मैं कोई मृत शरीर को
समझ रही हूँ सोता !
कीर
(१)
“कीर ! तू क्यों बैठा मन मार,
शोक बन कर साकार,
शिथिल तन मग्न विचार !
आकर तुझ पर टूट पडा है किस चिंता का भार ?”
(२)
इसे सुन पक्षी पंख पसार,
तीलियों पर पर मार,
हार बैठा लाचार,
पिंजड़े के तारों से निकली मानो यह झङ्कार-
(३)
“कहाँ बन बन स्वच्छन्द विहार !
कहाँ वन्दी-गृह द्वार !”
महा यह अत्याचार-
एक दुसरे का ले लेना ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ ।
5. झण्डा
(१)
हृदय हमारा करके गद्गद
भाव अनेक उठाता है,
उच्च हमारा होकर झण्डा
जब ‘फर-फर’ फहराता है!
(२)
अहे ! नहीं फहराता झण्डा
वायु वेग से चञ्चल हो,
हमें बुलाती है माँ भारत
हिला हिला कर अञ्चल को !
(३)
आओ युवको, चलें सुनें क्या
माता हमसे कहती आज ।
हाथ हमारे है रखना माँ
भारत के अञ्चल की लाज ।
वन्दी
(१)
“पड़े वन्दी क्यों कारागार ?
चले तुम कौन कुचाल ?
चुराया किसका माल ?
छीना क्या किसका जिस पर था तुम्हें नहीं अधिकार ?”
(२)
“न था मन में कोई कुविचार,
न थी दौलत की चाह,
न थी धन की परवाह,
था अपराध हमारा केवल किया देश को प्यार !
(३)
शीश पर मातृ भूमि-ऋण भार,
उसे हूँ रहा उतार ।
देशहित कारागार-
कारागार नहीं, वह तो है स्वतन्त्रता का द्वार !”