तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं-दस्ते-तहे-संग -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी
जिसमें रक्खा नहीं है किसी ने कदम
कोई उतरा न मैदां में दुश्मन न हम
कोई सफ़ बन न पाई न कोई अलम
मुंतशिर दोस्तों को सदा दे सका
अजनबी दुश्मनों का पता दे सका
तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी
जिसमें रक्खा नहीं हमने अब तक कदम
तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं
जिसम ख़सता है, हाथों में यारा नहीं
अपने बस का नहीं बारे-संगे-सितम
बारे-संगे-सितम, बारे-कुहसारे-ग़म
जिसको छूकर सभी इक तरफ़ हो गये
बात की बात में जी-शरफ़ हो गये
दोस्तो कूए-जानां की नामेहरबां
ख़ाक पर अपने रौशन लहू की बहार
अब न आयेगी क्या, अब खिलेगा न क्या
इस कफ़े-नाज़नीं पर कोई लालाज़ार
इस हज़ीं ख़ामुशी में न लौटेगा क्या
शोर-ए-आवाज़-ए-हक, नारा-ए-गीर-ओ-दार
शौक का इमतहां जो हुआ सो हुआ
जिसमों-जां का ज़ियां जो हुआ सो हुआ
सूद से पेशतर है ज़ियां और भी
दोस्तो मातम-ए-जिसम-ओ-जां और भी
और भी तलख़तर इमतहां और भी