ढूह की ओट बैठे- चक्रांत शिला अज्ञेय- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya,
ढूह की ओट बैठे
बूढ़े से मैंने कहा:
मुझे मोती चाहिए ।
उसने इशारा किया:
पानी में कूदो!
मैंने कहा: मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या?
उस ने एक मूँठ बालू उठा मेरी ओर कर दी ।
मैंने कहा: इस में से मिलेगा मुझे मोती?
उस ने एक कंकड़ उठाया और
अनमने भाव से मुझे दे पारा ।
मैंने बड़ा जतन दिखाते हुए उसे बीन लिया
और कहा: यही क्या मोती है-
आप का?
धीरे-धीरे झुका माथा ऊँचा हुआ,
मुड़ा वह मेरी ओर ।
सागर-सी उसकी आँखें थीं
सदियों की रेती पर
इतिहास की हवाओं की लिखतों-सी
नैन-कोरों की झुर्रियाँ ।
बोला वह:
(कैसी एक खोई हुई हवा उन
बालूओं के ढूहों में से, घासों में से
सर्पिल-सी फिसली चली गई)
हाँ:
या कि नहीं क्यों?
मिट्टी के भीतर
पत्थर था
पत्थर के भीतर
पानी था
पानी के भीतर
मेंढक था
मेंढक के भीतर
अस्थियाँ थीं यानी मिट्टी-पत्थर था,
लहू की धार थी यानी पानी था,
श्वास था यानी हवा थी,
जीव था-यानी मेंढक था ।
मोती जो चाहते हो
उस की पहचान अगर यह नही
तो और क्या है?