जीना है बन सीने का साँप- शरणार्थी अज्ञेय- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya,

जीना है बन सीने का साँप- शरणार्थी अज्ञेय- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya,

जीना है बन सीने का साँप
हम ने भी सोचा था कि अच्छी ची ज है स्वराज
हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर
ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज

अपने ही बल के
अपने ही छल के
अपने ही कौशल के
अपनी समस्त सभ्यता के सारे

संचित प्रपंच के सहारे
जीना है हमें तो, बन सीने का साँप उस अपने समाज के
जो हमारा एक मात्र अक्षन्तव्य शत्रु है
क्यों कि हम आज हो के मोहताज
उस के भिखारी शरणार्थी हैं।

मुरादाबाद स्टेशन (आधी रात), 12 नवम्बर, 1947

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