जाल समेटा -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

जाल समेटा -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2

दिल्ली की मुसीबत

दिल्ली भी क्या अजीब शहर है !
यहाँ जब मर्त्य मरता है-विशेषकर नेता-
तब कहते हैं, यह अमर हो गया-
जैसे कविता मरी तो अ-कविता हो गई-
बापू जी मरे तो इसने नारा लगाया,
बापू जी अमर हो गए ।
अमर हो गए
तो उनकी स्मृति को अमर करने के लिए चाहिए
एक समाधि,
एक यादगार !

दिल्ली भी क्या मज़ाकिया शहर है !
जो था नंग रंक,
राजसी ठाट से निकाला गया उसकी लाश का जलूस;
जिसके पास न थी झंझी कौड़ी, फूटा दाना,
उसके नाम पर खोल दिया गया ख़ज़ाना;
(गाँधी स्मारक निधि);
जिसका था फ़कीरी ठाट,
उसकी समाधि का नाम है राजघाट ।

फिर नेहरु जी अमर हो गए ।
अमर हो गए तो उनके लिए भी चाहिए
एक समाधि,
एक यादगार-
खुद गाँधी जी ने माना था अपनी गद्दी पर
उनका उत्तराधिकार-
फिर वे स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधान मन्त्री थे आख़िरकार-
जो उनका निवास था
वही उनका स्मारक बना दिया गया-तीन मूरती भवन-,
समाधि को नाम दिया गया ‘शान्ति वन’,
आबाद रहे जमुना का कछार ।

फिर लाल बहादुर शास्त्री अमर हो गए।
अमर हो गए तो उनके लिए भी चाहिए
एक समाधि,
एक यादगार-
वे स्वतन्त्र भारत के ग़रीब जनता से उभरे,
पहले प्रधान मन्त्री थे-
(इसीसे उन्होंने शून्य इकाई और एक दहाई के
जनपथ को अपना निवास बनाया था ।-
टेन डाउनिंग स्ट्रीट पर
ब्रिटेन के प्रधान मन्त्री का निवास
तो न कहीं अवचेतन में समाया था ?)
पहले विजेता प्रधान मन्त्री तो थे ही,
इसीसे उनकी समाधि का नाम विजय घाट हुआ,
ललिता जी के इसरार को दुआ;
राजघाट को अपना साथी मिला,
आख़िर दो अक्टूबर को उनका जन्म भी तो था हुआ।
स्मारक उनका अभी तक नहीं बना; बनना चाहिए ।
हरी बहादुर को अपने पिता का उत्तराधिकार मिलता
तो यह काम बड़ी आसानी से हो जाता,
गो दोनों बातों में ज़ाहिरा कोई नहीं नाता ।
कूछ काम मजबूरन करना पड़ता है ।
जिस मकान में सिर्फ़ अठारह महीने प्रधान मन्त्री रहकर
वे अमर हो गए
उस मनहूस मकान में भी प्रधान मन्त्री,
कोई मन्त्री,
कोई हाकिम क्यों रहने लगा ।
दस जनपथ है सालों से खाली पड़ा ।
क्यों न उसमें शास्त्री भी का स्मारक कर …दिया जाए खड़ा ।
उनकी धोती, टोपी, रजाई, चारपाई का उपयोग
हो सकता है बड़ा;
देश के ग़रीब युवकों को प्रधान मन्त्री पद तक
प्रेरित करने के लिए ।

औ’ हमारी वर्तमान प्रधान मन्त्री कभी अमर हुईं
(भगवान करें वे कभी न हों । )
तो उनके लिए भी एक समाधि,
एक यादगार बनानी होगी ही ।
आख़िर वे स्वतन्त्र भारत की पहली महिला प्रधान मन्त्री हैं ।
समाधि का नाम होगा शायद महिला-उद्यान–
वन की लाडली संतान-
स्मारक होगा एक सफ़दरजंग का उनका निवास स्थान
प्रदर्शित करने को मिल ही जाएगा उनका बहुत-सा सामान-
साड़ी,
जम्पर,
सिंगारदान;
चुनाव के दौरान उनकी नाक पर पड़ा पाषाण;
अन्न-संकट के समय उनके लान में बोया,
उनके कर-कमलों से काटा गया धान;
और बड़ी यादगारों के और बड़े उपादान ।
विविधतायों से भरे अपने देश में
हर एक प्रधान मन्त्री को
किसी न किसी हिसाब से पहला स्थान
दे सकना होगा कितना आसान,
सब को करना होगा महत्त्व प्रदान,
सब के लिए बनानी होगी समाधि,
सब की बनानी होगी यादगार,
सब के नाम पर छोड़े जाते रहेंगे मकान
जैसे पहले छोड़े जाते थे साँड-
सब के नाम पर लगाए जाते रहेंगे
वन, उद्यान, पार्क ।
कहां तक खींचा जा सकेगा जमुना का कछार ।

इसलिए, हे भगवान,
तुमसे एक प्रार्थना,
भारत का हर प्रधान मन्त्री
सौ-सौ बरस तक अपनी गद्दी पर रहे बना,
क्योंकि हरेक अमर होकर अगर घेरेगा
कई-कई वर्गमील,
दिल्ली बेचारी इतनी ज़मीन कहाँ से लाएगी !
बदक़िस्मत आख़िर को
समाधि और स्मारकों की नगरी बन के रह जाएगी !

संघर्ष-क्रम

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था
अपने को बचाने को
अंध प्रकृति के आघातों से-
बर्फ़ीली, काटती-सी बयारों से,
गर्दीली, मुँह नोचती-सी लूओं से,
छर्रे बरसाती बौछारों से
जंगलों से, दलदलों से, नदियों-
प्रपातों से।

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था ।
अपने को बचाने को
सरी-सृप, परिंदों औ’ दरिंदों से-
गोजर, बिच्छु, सर्पों से,
गरुड़ों से, गिद्धों से,
लकड़बग्घों, कुत्तों से,
भेड़ियों से, चीतों से,
सिंहों से।

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था
अपने को बचाने को
राजाओं, शाहों, सुल्तानों से,
हमलावर खड़्गधर लुटेरों से,
शोषण पर तुले धनकुबेरों से,
संप्रदाय, रुढ़ि, रीति के
स्वयं-नियुक्त ठेकेदारों से,
निर्दय बटमारों से ।

एक दिन इंसान को संघर्ष करना पड़ा था
अपने को बचाने को
आदम की आदमी कहलाती औलादों से-
तर्क-लुप्त, लक्ष्य-भ्रष्ट भीड़ों से-
संज्ञा-व्यक्तित्वहीन कीड़ों से,-
अस्त्र-शस्त्र-यन्त्र बने जीवों से-
शासन में आत्महीन पुरजों से, क्लीवों से-
और जन्तुयों से जो
नेता, निर्णायक, जननायक, विधायक का
स्वांग भर निकलते थे
मन्त्रालय, न्यायालय, सचिवालय,
संसद की मांदों से ।

सन् 2068 की हिंदी कक्षा में

..बड़ा दुःख,
दुर्भाग्य बड़ा है !
इन कवि का केवल
अभिनन्दन ग्रन्थ प्राप्य है ।
कोई पुस्तक नहीं, किसी पुस्तकागार,
अभिलेखालय में;
और किसी को याद नहीं,
दो-चार पंक्तियाँ भी
इन कवि की ।
कितने नकली, कितने छिछले
और गलत मूल्यों का
होगा युग वह
जिसमें,
जिसके साथ
राष्ट्रपति और
वजीरे आजम
औ’ नेतागण
भारी-भरकम
अपने फोटो
खिचवाने को
लुलुवाते थे,
उनकी कोई
रचना नहीं
ख़रीदा या
बांचा करते
थे-

कहाँ देश-सेवा, समाज-सेवा से
उनको
दम लेने
की फुरसत
होगी-
औ’ उनकी
सेवा लेने
में
और प्रशंसा
और चाटुकारी
उनकी करने
में लिपटी
रहती होगी
जनता सारी
कुछ अपने
मतलब की
बात करा
लेने में
किसे दिशा
दे सकती
होगी
हिंदी की
कविता दयमारी !

मेरा संबल

मैं जीवन की हर हल चल से
कुछ पल सुखमय,
अमरण-अक्षय,
चुन लेता हूँ।

मैं जग के हर कोलाहल में
कुछ स्वर मधुमय,
उन्मुक्त-अभय,
सुन लेता हूँ।

हर काल कठिन के बन्धन से
ले तार तरल
कुछ मुद-मंगल
मैं सुधि-पट पर
बुन लेता हूँ।

शरद् पूर्णिमा

पूरे चाँद की यह रात,
जैसे भूमि को हो
स्वर्ग की सौगात ।

पुलकित-से धरा के प्राण
सौ-सौ भावनायों से
अगम-अज्ञात ।
पूरे चाँद की यह रात ।

धरती तो अधूरी
सब तरह से,
सब तरफ़ से,
अंजली में धार
प्रत्युपहार क्या
ऊपर उठाए हाथ !
पूरे चाँद की यह रात ।

..नई दिल्ली किसकी है?

यों तो यह राजधानी है,
यहाँ राष्ट्रपति रहते हैं,
प्रधान मन्त्री,
राज मन्त्री, उप मन्त्री
दर्जे-ब-दर्जे सचिव,
अफ़सर-अहलकार-ओहदेदार,
अख़बार-नवीस, सेठ-साहूकार ,
कवि, कलाकार, साहित्यकार,
जिनके नाम, कारनामों से
दिनभर
पथ-पथ, मार्ग-मार्ग ध्वनित,
गली-गली
गुंजित रहती है
पर नवम्बर की इस आधी रात की
नई दिल्ली तो
चाँद की है,
चाँदनी की है,
रातरानी की है,
और उस पखेरू की
जिसकी अकेली, दर्दीली आवाज़
राष्ट्रपति भवन के गुम्बद से लेकर
संसद-सचिवालयों पर होती
पुराने क़िले के मेहराबों तक गूँजती है,
और न जाने किससे,
न जाने क्या कहती है!
और उस नींद-हराम अभागे की भी,
जो उसे अनकती है ।

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