चार खेमे चौंसठ खूंटे -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2
गंधर्व-ताल
लछिमा का गीत
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल नील-नवल,
शीतल, निर्मल,
जल-तल पर सोन चिरैया रै,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
सित-रक्त कमल
झलमल-झलमल
दल पर मोती चमकैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
दर्पण इनमें,
बिंबित जिनमें
रवि-शि-कर गगन-तरैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
जल में हलचर,
कलकल, छलछल
झंकृत कंगन
झंकृत पायल,
पहुँचे जल-खेल-खेलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
साँवर, मुझको
भी जाने दे
पोखर में कूद
नहाने दे;
लूँ तेरी सात बलैया रे,
छितवन की,
छितवन की ओट तलैया रे,
छितवन की!
आगाही
साँवर का गीत
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
छितवन के तरुवर बहुतेरे
उसको चार तरु से घेरे,
उनकी डालों के भुलावे में मत आना लछिमा!
उनके पातों की पुकारों, उनकी फुनगी की इशारों,
उनकी डालों की बुलावे पर न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके बीच गई सुकुमारी,
अपनी सारी सुध-बुध हारी;
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
न छलाना, लछिमा; न भरमाना, लछिमा!
उनकी छाया-छलना से न छलाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जो सुकुमारी ताल नहाती,
वह फिर लौट नहीं घर आती,
हिम-सी गलती; यह जोखिम न उठाना, लछिमा!
न उठाना, लछिमा; न उठाना लछिमा!
जल में गलने का जोखिम न उठाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
गारे गंधर्वों का मेला!
जल में करता है जल-खेला,
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
उनके घेरे में न जाना, उनके फेड़े में न पड़ना!
उनके फेरे, उनके घेरे में न जाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
उनके घेरे में जो आता,
वह बस उसका ही हो जाता,
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाता, लछिमा!
हो दिवाना, लछिमा, हो दिवाना, लछिमा!
जाता उनको ही पिछुआता हो दिवाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
जिसके मुख से ‘कृष्ण’ निकलता,
उसपर ज़ोर न उनका चलता,
उनके बीच अगर पड़ जाना,
अपने साँवर बावरे को न भुलाना, लछिमा!
न भुलाना, लछिमा; न बिसराना, लछिमा!
अपने साँवर बापरे को न भुलाना लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मत जाना, लछिमा; मत नहाना, लछिमा!
पच्छिम ताल पर न जाना, न नहाना, लछिमा!
मालिन बिकानेर की
(बीकानेरी मजदूरिनियों से सुनी लोकधुन पर आधारित)
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
बाहर-बाहर बालू-बालू,
भीतर-भीतर बाग है,
बाग-बाग में हर-हर बिरवे
धन्य हमारा भाग है;
फूल-फूल पर भौंरा,
डाली-डाली कोयल टेरती।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
धवलपुरी का पक्का धागा,
सूजी जैसलमेर की,
झीनी-बीनी रंग-बिरंगी,
डलिया है अजमेर की;
कलियाँ डूंगरपुर,बूंदी की,
अलवर की,अम्बेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ओढ़नी आधा अंबर ढक ले
ऐसी है चित्तौर की,
चोटी है नागौर नगर की,
चोली रणथम्भौर की;
घघरी आधी धरती ढंकती है
मेवाड़ी घेर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
ऐसी लम्बी माल कि प्रीतम-
प्यारी पहनें साथ में,
ऐसी छोटी माल कि कंगन
बांधे दोनों हाथ में,
पल भर में कलियाँ कुम्हलाती
द्वार खड़ी है देर की।
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की.
एक टका धागे की कीमत,
पांच टके हैं फूल की,
तुमने मेरी कीमत पूछी?–
भोले, तुमने भूल की।
लाख टके की बोली मेरी!–
दुनिया है अंधेर की!
फूलमाला ले लो,
लाई है मालिन बीकानेर की।
मालिन बीकानेर की।
रूपैया
(उत्तरप्रदेश के लोकधुन पर आधारित)
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
रोटी न मँहगी है,
लहँगा न मँहगा,
मँहगा है,सैंया,रुपैया।
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
बेटी न प्यारी है,
बेटा न प्यारा,
प्यारा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
नाता न साथी है,
रिश्ता न साथी
साथी है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
गाना न मीठा,
बजाना न मीठा,
मीठा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
गाँधी न नेता,
जवाहर न नेता,
नेता है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया।
दुनियाँ न सच्ची,
दीन न सच्चा,
सच्चा है,सैंया,रुपैया।
मगर मँहगा है,सैंया,रुपैया.
आज मँहगा है,सैंया,रुपैया।
वर्षाऽमंगल
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी ब-बरसे जाएगा?
पुरुष:
बहुत दिनों से अंबर प्यासा!
स्त्री:
बहुत दिनों से धरती प्यासी!
दोनों:
बहुत दिनों से घिरी उदासी!
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
काला बादल!
दोनों:
गोरा बादल!
काला बादल!
पुरुष:
गोरा बादल उठ पच्छिम से आया था–
गरज-गरज कर फिर पच्छिम को चला गया।
स्त्री:
काला बादल उठ पूरब से आया है–
कड़क रहा है,चमक रहा है,छाया है।
पुरुष:
आँखों को धोखा होता है!
स्त्री:
जग रहा है या सोता है?
पुरुष:
गोरा बादल गया नहीं था पच्छिम को,
रंग बदलकर अब भी ऊपर छाया है!
स्त्री:
गोरा बादल चला गया हो तो भी क्या,
काले बादल का सब ढंग उसी का और पराया है।
पुरुष:
इससे जल की आशा धोखा!
स्त्री:
उल्टा इसने जल को सोखा!
दोनों:
कैसा अचरज!
कैसा धोखा!
छूंछी धरती!
भरा हुआ बादल का कोखा!
पुरुष:
गोरा बादल!
स्त्री:
गोरा बादल!
पुरुष:
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
स्त्री:
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल ही जग को तरसेगा?
दोनों:
पूरब का पच्छिम का बादल,
उत्तर का दक्खिन का बादल–
कोई बादल नहीं बरसता ।
वसुंधरा के
कंठ-ह्रदय की प्यास न हरता।
वसुधा तल का
जन-मन-संकट-त्रास न हर्ता।
व्यर्थ प्रतीक्षा!धिक् प्रत्याशा!धिक् परवशता!
उसे कहें क्या कड़क-चमक जो नहीं बरसता!
पुरुष:
गोरा बादल प्यासा रखता!
स्त्री:
काला बादल प्यासा रखता
दोनों:
जीवित आँखों की,कानों में आशा रखता,
प्यासा रखता!प्यासा रखता!प्यासा रखता!
राष्ट्र-पिता के समक्ष
हे महात्मन,
हे महारथ,
हे महा सम्राट!
हो अपराध मेरा क्षम्य,
मैं तेरे महाप्रस्थान की कर याद,
या प्रति दिवस तेरा
मर्मभेदी,दिल कुरेदी,पीर-टिकट
अभाव अनुभव कर नहीं
तेरे समक्ष खड़ा हुआ हूँ।
धार कर तन —
राम को क्या, कृष्ण को क्या–
मृत्तिका ऋण सबही को
एक दिन होता चुकाना;
मृत्यु का कारण,बहाना .
और मानव धर्म है
अनिवार्य को सहना-सहाना।
औ’न मैं इसलिए आया हूँ
कि तेरे त्याग,तप,निःस्वार्थ सेवा,
सल्तनत को पलटनेवाले पराक्रम,
दंभ-दर्प विचूर्णकारी शूरता औ’
शहनशाही दिल,तबियत,ठाठ के पश्चात
अब युग भुक्खरों,बौनों,नकलची बानरों का
आ गया है;
शत्रु चारों ओर से ललकारते हैं,
बीच,अपने भाग-टुकड़ों को
मुसलसल उछल-कूद मची हुई है;
त्याग-तप कि हुंडियां भुनकर समाप्तप्राय
भ्रष्टाचार,हथकंडे,खुशामद,बंदरभपकी
की कमाई खा रही है।
अस्त जब मार्तण्ड होता,
अंधकार पसरता है पाँव अपने,
टिमटिमाते कुटिल,खल-खद्योत दल,
आत्मप्रचारक गाल-गाल श्रृगाल
कहते घूमते है यह हुआ,वह हुआ,
ऐसा हुआ,वैसा हुआ,कैसा हुआ!
शत-शत,इसी ढब की,कालिमा की
छद्म छायाएँ चतुर्दिक विचरती हैं.
आज़ादी के चौदह वर्ष
देश के बेपड़े, भोले, दीन लोगो!
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम।
कुछ समय की माप का आभास तुमको?
नहीं; तो तुम इस तरह समझो
कि जिस दिन तुम हुए स्वाधीन उस दिन
राम यदि मुनि-वेष कर, शर-चाप धर
वन गए होते,
साथ श्री, वैभव, विजय, ध्रुव नीति लेकर
आज उनके लौटने का दिवस होता!
मर चुके होते विराध, कबंध,
खरदूषण, त्रिशिर, मारीच खल,
दुर्बन्धु बानर बालि,
और सवंश दानवराज रावण;
मिट चुकी होती निशानी निशिचरों की,
कट चुका होता निराशा का अँधेरा,
छट चुका होता अनिश्चय का कुहासा,
धुल चुका होता धरा का पाप संकुल,
मुक्त हो चुकता समय
भय की,अनय की श्रृंखला से,
राम-राज्य प्रभात होता!
पर पिता-आदेश की अवहेलना कर
(या भरत की प्रार्थना सुन)
राम यदि गद्दी संभाल अवधपुरी में बैठ जाते,
राम ही थे,
अवध को वे व्यवस्थित, सज्जित, समृद्ध अवश्य करते,
किंतु सारे देश का क्या हाल होता।
वह विराध विरोध के विष दंत बोता,
दैत्य जिनसे फूट लोगों को लड़ाकर,
शक्ति उनकी क्षीण करते।
वह कबंध कि आँख जिसकी पेट पर है,
देश का जन-धन हड़पकर नित्य बढता,
बालि भ्रष्टाचारियों का प्रमुख बनता,
और वह रावण कि जिसके पाप की मिति नहीं
अपने अनुचरों के, वंशजों के सँग
खुल कर खेलता, भोले-भलों का रक्त पीता,
अस्थियाँ उनकी पड़ी चीत्कारतीं
कोई न लेकिन कान धरता ।
देश के अनपढ़, गँवार, गरीब लोगो!
आज चौदह साल से आज़ाद हो तुम
देश के चौदह बरस कम नहीं होते;
और इतना सोचने की तो तुम्हें स्वाधीनता है ही
कि अपने राम ने उस दिन किया क्या?
देश में चारों तरफ़ देखी, बताओ ।
ध्वस्त पोत
बंद होना चाहिए,
यह तुमुल कोलाहल,
करुण चीत्कार, हाय पुकार,
कर्कश-क्रुद्ध-स्वर आरोप
बूढ़े नाविकों पर,
श्वेतकेशी कर्णधारों पर,
कि अपनी अबलता से, ग़लतियों से,
या कि गुप्त स्वार्थ प्रेरित,
तीर्थयात्रा पर चला यह पोत
लाकर के उन्हें इस विकट चट्टान से
टकरा दिया है ।
यान अब है खंड-खंड विभक्त, करवट,
सूत्र सब टूटे हुए,
हर जोड़ झूठा, चूल ढीली,
नभमुखी मस्तूल नतमुख, भूमि-लुंठित।
उलटकर सब ठाठ-काठ-कबार-सम्पद-भार
कुछ जलमग्न, कुछ जलतरित, कुछ तट पर
विश्रृंखल, विकृत, बिखरा, बिछा, पटका-सा, फिका-सा
मरे, घायल,चोट खाए, दबे-कुचले औए डूबों की न संख्या।
बचे, अस्त-व्यस्त, घबराए हुओं का।
दिक्-ध्वनित, क्रंदन!
इसी के बीच लोलुप स्वार्थपरता
दया, मरजादा, हया पर डाल परदा
धिक्, लगी है लूट नोच, खसोट में भी ।
इस निरात्म प्रवृत्ति की करनी उपेक्षा ही उचित है।
पूर्णता किसमें निहित है?
स्वल्प ये कृमि-कीट कितना काट खाएँगे-पचाएंगे!
कभी क्या छू सकेंगे,
आत्मवानो,व ह अमर स्पंद कि जिससे
यह वृहद जलयान होकर पुनर्निर्मित, नव सुसज्जित
नव तरंगों पर नए विश्वास से गतिमान होगा ।
किंतु पहले
बंद होना चाहिए,
यह तुमुल कोलाहल,
करुण आह्वान, कर्कश-क्रुद्ध क्रंदन।
पूछता हूँ,
आदिहीन अतीत के ओ यात्रियो,
क्या आज पहली बार ऐसी ध्वंसकारी,
मर्मभेदी, दुर्द्धरा घटना घटी है?
वीथियाँ इतिहास की ऐसी कथाओं से पटी हैं,
जो बताती हैं कि लहरों का निमंत्रण या चुनौती
तुम सदा स्वीकारते, ललकारते बढ़ते रहे हो।
सिर्फ चट्टाने नहीं,
दिक्काल तुमसे टक्करें लेकर हटे हैं,
और कितनी बार ?-वे जानें, बताएँ।
टूटकर फिर बने,
फिर-फिर डूबकर तुम तरे,
विष को घूँटकर अमरे रहे हो।