गीतिका (३)-शंकर कंगाल नहीं-शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
राह चलते हुए थक गया हूँ।
यह न समझो कि मैं रुक गया हूँ।।
दर्द के गाँव में दो प्रहर हूँ।
यह न समझो कि मैं बस गया हूँ।।
दृष्टि का धर्म है, रूप-दर्शन।
यह न समझो कि मैं बिक गया हूँ।।
बाँट सर्वस्व ख़ुद ही दिया है।
यह न समझो कि मैं लुट गया हूँ।।
कोटि षड्यंत्र भर तुम बिछा कर।
यह न समझो कि मैं मिट गया हूँ।।
दे भले ग़ालियाँ लो मुझे तुम।
यह न समझो कि मैं घट गया हूँ।।
भार दायित्व का बढ़ रहा है।
यह न समझो कि मैं दब गया हूँ।।
मौन हूँ, कुछ विवशताएँ मेरी।
यह न समझो कि मैं झुक गया हूँ।।
भूमि का ऋण यही कह रहा है-
‘यह न समझो कि मैं चुक गया हूँ’।।
छाँटने से लगा हूँ अँधेरा।
यह न समझो कि मैं छिप गया हूँ।।