गीतिका (२)-शंकर कंगाल नहीं-शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
रोज़ रूठो, तुम्हें मैं मनाता रहूँ।
आख़िरी साँस तक प्यार पाता रहूँ।।
खीँच आँचल चलो गाँव की ओर जब-
तुम सुनो ही नहीं, मैं बुलाता रहूँ।।
बादलो यों घिरो, वे डरें, रो उठें।
धीर भर अंक में, मैं बँधाता रहूँ।।
एक लौ सी जले, देह में रात-दिन।
आँधियों से जिसे मैं बचाता रहूँ।।