गीतिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Suryakant Tripathi Nirala Part 1
भारती वन्दना
भारति, जय, विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे!
लंका पदतल-शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण-युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!
तरु-तण वन-लता-वसन
अंचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल-धार हार लगे!
मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख-शतरव-मुखरे!
नयनों के डोरे लाल
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली–
बनी रति की छवि भोली!
रूखी री यह डाल
रुखी री यह डाल ,वसन वासन्ती लेगी
देख खड़ी करती तप अपलक ,
हीरक-सी समीर माला जप
शैल-सुता अपर्ण – अशना ,
पल्लव -वसना बनेगी-
वसन वासन्ती लेगी
हार गले पहना फूलों का,
ऋतुपति सकल सुकृत-कूलों का,
स्नेह, सरस भर देगा उर-सर,
स्मर हर को वरेगी
वसन वासन्ती लेगी
मधु-व्रत में रत वधू मधुर फल
देगी जग की स्वाद-तोष-दल ,
गरलामृत शिव आशुतोष-बल
विश्व सकल नेगी ,
वसन वासन्ती लेगी
घन,गर्जन से भर दो वन
घन,गर्जन से भर दो वन
तरु-तरु-पादप-पादप-तन।
अबतक गुँजन-गुँजन पर
नाचीँ कलियाँ छबि-निर्भर;
भौँरोँ ने मधु पी-पीकर
माना,स्थिर मधु-ऋतु कानन।
गरजो, हे मन्द्र, वज्र-स्वर;
थर्राये भूधर-भूधर,
झरझर झरझर धारा झर
पल्लव-पल्लव पर जीवन।
अनगिनित आ गए शरण में
अनगिनित आ गए शरण में जन, जननि,–
सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि !
स्नेह से पंक-उर
हुए पंकज मधुर,
ऊर्ध्व-दृग गगन में
देखते मुक्ति-मणि !
बीत रे गई निशि,
देश लख हँसी दिशि,
अखिल के कण्ठ की
उठी आनन्द-ध्वनि !
पावन करो नयन !
रश्मि, नभ-नील-पर,
सतत शत रूप धर,
विश्व-छवि में उतर,
लघु-कर करो चयन !
प्रतनु, शरदिन्दु-वर,
पद्म-जल-बिन्दु पर,
स्वप्न-जागृति सुघर,
दुख-निशि करो शयन !
वर दे वीणावादिनी वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
बन्दूँ, पद सुन्दर तव
बन्दूँ, पद सुंदर तव,
छंद नवल स्वर-गौरव ।
जननि, जनक-जननि-जननि,
जन्मभूमि-भाषे !
जागो, नव अम्बर-भर,
ज्योतिस्तर-वासे !
उठे स्वरोर्मियों-मुखर
दिककुमारिका-पिक-रव ।
दृग-दृग को रंजित कर
अंजन भर दो भर–
बिंधे प्राण पंचबाण
के भी, परिचय शर ।
दृग-दृग की बँधी सुछबि
बाँधें सचराचर भव !
जग का एक देखा तार
जग का एक देखा तार ।
कंठ अगणित, देह सप्तक,
मधुर-स्वर झंकार ।
बहु सुमन, बहुरंग, निर्मित एक सुन्दर हार;
एक ही कर से गुँथा, उर एक शोभा-भार ।
गंध-शत अरविंद-नंदन विश्व-वंदन-सार,
अखिल-उर-रंजन निरंजन एक अनिल उदार ।
सतत सत्य, अनादि निर्मल सकल सुख-विस्तार;
अयुत अधरों में सुसिंचित एक किंचित प्यार ।
तत्त्व-नभ-तम में सकल-भ्रम-शेष, श्रम-निस्तार,
अलक-मंदल में यथा मुख-चन्द्र निरलंकार ।
बुझे तृष्णाशा-विषानल
बुझे तृष्णाशा-विषानल झरे भाषा अमृत-निर्झर,
उमड़ प्राणों से गहनतर छा गगन लें अवनि के स्वर ।
ओस के धोए अनामिल पुष्प ज्यों खिल किरण चूमे,
गंध-मुख मकरंद-उर सानन्द पुर-पुर लोग घूमे,
मिटे कर्षण से धरा के पतन जो होता भयंकर,
उमड़ प्राणों से निरन्तर छा गगन लें अवनि के स्वर ।
बढ़े वह परिचय बिंधा जो क्षुद्र भावों से हमारा,
क्षिति-सलिल से उठ अनिल बन देख लें हम गगन-कारा,
दूर हो तम-भेद यह जो वेद बनकर वर्ण-संकर,
पार प्राणों से करें उठ गगन को भी अवनि के स्वर ।