.कैसा, न जानूँ!-विंदा करंदीकर -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vinda Karandikar
कभी कभी तो मैं तिनके-सा ओछा
कभी बढ़ते-बढ़ते आसमाँ समेटूँ
कभी विश्व को चूमने बढ़ जाऊँ
कभी आप ही को अपने हाथों सरापूँ।
कभी माँगूँ सत् तो कभी स्वप्न माँगूँ
कभी छोड़ पीछे ज़माने को, दौड़ूँ
कभी मैं अमृत की वर्षा कराऊँ
मृत्यु की भीख भोली कभी माँग बैठूँ।
कभी हीन-दीन मैं, बहुत बेसहारा
कभी अपने आलोक से जगमगाता
कभी गरज उठता हूँ सागर के जैसा
कभी अपनी ही बात से काँप जाता।
कभी ढूंढ़ता अपने आप को सभी में
कभी अपने आप में सभी को हूँ पाता
जहाँ सूर्य-तारे हैं अणुरूप होते,
वहीं पर मैं खुद को अनन्त से हूँ नापता।
जरा-सी बात पर अहंकार होता
खुदगर्ज यादों का पीछा न छुटता
कभी स्वाँग अपना मैं सच मान बैठूँ
कभी सत्य को स्वाँग मैं मान लेता।
कभी संयमी, संशयात्मा, विरागी
कभी आततायी, लिये दुरभिमान मैं
ऐसा मैं…वैसा मैं…कैसा, न जानूँ
अपने ही घर, दूर का मेहमान मैं।
(अनुवाद : रेखा देशपांडे)