किसी के तज़्क़िरे बस्ती में कू-ब-कू जो हुए-दर्द आशोब -अहमद फ़राज़-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Ahmed Faraz,
किसी के तज़्किरे बस्ती में कू-ब-कू जो हुए
हमीं ख़मोश थे मौज़ू-ए-गुफ़्तगू जो हुए
न दिल का दर्द ही कम है न आँख ही नम है
न जाने कौन-से अरमाँ थे वो लहू जो हुए
नज़र उठा तो गुमगश्ता-ए-तहय्युर थे
हम आइने की तरह तेरे रू-ब-रू जो हुए
हमीं हैं वादा-ए-फ़र्दा प’ टालने वाले
हमीं ने बात बदल दी बहाना-जू जो हुए
‘फ़राज़’ हो कि वो ‘फ़रहाद’ हो कि हो मंसूर
उन्हीं का नाम है नाकामे-आरज़ू जो हुए